प्रकाश करात और सीताराम येचुरी लाइन में उलझी माकपा

1975 के बाद यह पहला मौका है, जब माकपा की केंद्रीय समिति ने अपने महासचिव की रणनीतिक लाइन के प्रस्ताव को ठुकराया और समानांतर प्रस्ताव को पारित किया है।

New Delhi, Jan 22: भारत में कम्युनिस्ट नाम-धारी पार्टियों और गुटों में सबसे बड़ी पार्टी है- माकपा यानी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी)। भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा स्वीकृत सात राष्ट्रीय पार्टियों में इसका नाम भी दर्ज है। लेकिन यह पार्टी लंबे समय से देश के दो या तीन सूबों में सिमटी हुई है। इसके क्षेत्रीय आधार और राष्ट्रीय सोच के बीच कई बार तीखे अंतर्विरोध उजागर होते हैं। इस वक्त भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में आयोजित पार्टी की अति-महत्वपूर्ण केंद्रीय समिति की बैठक में बीते रविवार पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सीताराम येचुरी और उनके समर्थक सदस्यों के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया, जिसमें उन्होंने ऱाष्ट्रीय राजनीति में भाजपा-संघ परिवार की ‘सांप्रदायिक, विद्वेषपूर्ण और विभाजनकारी नीतियों’ को शिकस्त देने के लिये कांग्रेस सहित अन्य शक्तियों के साथ बेहतर तालमेल करने की रणनीति अपनाने की वकालत की थी। इससे बिल्कुल अलग पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश कारात और उनके समर्थक सदस्यों के समानांतार प्रस्ताव में कांग्रेस के साथ किसी तरह का गठबंधन या तालमेल न करने की रणनीति पर जोर दिया गया था। कारात-समर्थकों के प्रस्ताव को केंद्रीय समिति और पोलित ब्यूरो ने अपनी मंजूरी दे दी।

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बताते हैं कि येचुरी का राजनीतिक प्रस्ताव सिर्फ 31 वोट हासिल कर सका, जबकि कारात-समर्थकों के प्रस्ताव को 55 वोट मिले। आमतौर पर कम्युनिस्ट पार्टियों में ऐसा ‘जनतंत्र’ कम देखने को मिलता है। पार्टी के सर्वोच्च पदाधिकारी-महासचिव-समर्थित प्रस्ताव के खारिज किये जाने के अपने देश की कम्युनिस्ट पार्टियों में उदाहरण तो हैं पर वे उंगली पर गिनने लायक भर हैं। सन् 1975 के बाद यह पहला मौका है, जब माकपा की केंद्रीय समिति ने अपने महासचिव की रणनीतिक लाइन के प्रस्ताव को ठुकराया और समानांतर प्रस्ताव को पारित किया है। सन् 1975 में तत्कालीन महासचिव पी सुंदरैया के प्रस्ताव को पार्टी की केंद्रीय समिति ने खारिज कर अलग रणनीतिक फैसला किया था। नाराज सुंदरैया ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इस बार भी येचुरी ने यही किया। उन्होंने बैठक के बाद अपने पद से इस्तीफे की पेशकश कर दी। लेकिन केंद्रीय समिति ने पेशकश खारिज की और उन्हें पद पर बने रहने का फैसला सुनाया। यानी येचुरी अब एक ऐसे रणनीतिक कार्यक्रम पर अमल करने के लिये विवश होंगे, जो उन्हें सही नहीं लगता।

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येचुरी के पास अब अपनी राजनीतिक-रणनीतिक लाइन को आगे बढ़ाने या मंजूर करानेका सिर्फ एक फोरम बचा है। वह हैः पार्टी कांग्रेस यानी मा.क.पा का राष्ट्रीय अधिवेशन, जो हर तीन साल बाद होता है। वह इस वर्ष अप्रैल महीने में हैदराबाद में होना है। संय़ोगवश येचुरी का यह अपना राज्य भी है। अधिवेशन में पूरे देश से डेलीगेट आयेंगे और केंद्रीय समिति द्वारा मंजूर राजनीतिक प्रस्ताव पर विचार विमर्श के बाद अपना फैसला सुनायेंगे। बताते हैं कि बंगाल और त्रिपुरा की माकपा के ज्यादातर केंद्रीय समिति सदस्यों ने येचुरी की राजनीतिक लाइन का समर्थन किया लेकिन केरल के सदस्यों ने कारात की राजनीतिक लाइन को सही माना। केरल के अलावा कुछ अन्य राज्यों से भी करात समर्थकों के प्रस्ताव को समर्थन मिला। पार्टी की केंद्रीय समिति द्वारा पारित किये राजनीतिक प्रस्ताव का मतलब साफ है कि मा.क.पा अगले किसी भी चुनाव में कांग्रेस के साथ सहयोग, समर्थन, गठबंधन या तालमेल नहीं कर सकेगी। ऐसा तभी संभव होगा, जब हैदराबाद में होने वाला पार्टी अधिवेशन इस राजनीतिक लाइन को खारिज कर येचुरी लाइन को मंजूर कर ले। सवाल उठता है, माकपा में सोच का यह संघर्ष इतना तीखी क्यों हो गया?

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संभव है, इसके पीछे करात और येचुरी या उन दोनों के समर्थक-सदस्यों के अहम् के टकराव की भी कुछ न कुछ भूमिका हो पर मैं समझता हूं, इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है-माकपा के क्षेत्रीय आधार की मजबूरियों और राष्ट्रीय राजनीतिक सोच का अंतर्विरोध। केरल में पार्टी का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी दल आज भी कांग्रेस ही है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के अभ्युदय से पहले बंगाल में भी यही सिलसिला रहा है। तीसरे अपेक्षाकृत छोटे राज्य त्रिपुरा में भी मा.क.पा का मुकाबला हमेशा कांग्रेस से होता रहा है। पर राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के वर्चस्व के मौजूदा दौर में इन राज्यों के समीकरण भी अब कुछ बदलते नजर आ रहे हैं। हालांकि केरल में मा.क.पा का अब भी कांग्रेस ही मुख्य प्रतिद्वन्द्वी है। यही कारण है कि इन सूबों के ज्यादातर मा.क.पा नेता, खासतौर पर सांसद, विधायक और पार्टी समितियों के वरिष्ठ सदस्य कांग्रेस के साथ किसी तरह का मेलजोल नहीं चाहते। उन्हें कांग्रेस के साथ कोई भी गठबंधन या सहयोग बेमेल लगता है।

दूसरी तरफ, येचुरी और उऩके समर्थक-सदस्य नहीं चाहते कि राष्ट्रीय राजनीति में बड़े हस्तक्षेप के रास्ते में प्रांतीय राजनीति के समीकरण किसी तरह की मजबूरी बनें। इनका मानना है कि भारतीय लोकतंत्र और संवैधानिकता के लिये आज भाजपा-संघ परिवार ‘बड़ा खतरा’ बनकर उभरे हैं। सभी गैर-भाजपा दलों और शक्तियों से राष्ट्रीय स्तर पर मिलजुल कर नहीं लड़ा गया तो इस बड़े खतरे से मुकाबला करना या इन्हें शिकस्त देना किसी एक दल या धारा के लिये आसान नहीं होगा। बताते हैं कि त्रिपुरा और बंगाल के कई नेताओं ने यही दलील दी कि राज्यों के स्तर पर हम अपनी रणनीति वहां की परिस्थिति के मुताबिक बनायें और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी सभी प्रमुख गैर-भाजपा दलों से सहयोग करे। पर कारात और उनके समर्थकों को इस राजनीतिक लाइन में सिर्फ ‘वैचारिक शुद्धता’ ही नहीं, ‘व्यावहारिकता’ का भी अभाव लगता है। इस तरह, माकपा आज अपने क्षेत्रीय आधार के आग्रहों-पूर्वाग्रहों और राष्ट्रीय राजनीतिक भूमिका और जिम्मेदारी के अंतर्विरोधों की शिकार नजर आ रही है। वाम-राजनीति के कई प्रेक्षकों का मानना है कि कारात और उनके समर्थक बेवजह की वैचारिक-शुद्धता का प्रलाप कर रहे हैं। यह देश की अवाम के हक में नहीं है।

उल्लेखनीय है कि सन् 1996 में प्रकाश कारात और उनके समर्थकों ने बंगाल के तत्कालीन वामपंथी मुख्यमंत्री ज्योति वसु के देश का प्रधानमंत्री बनाये जाने के विपक्षी दलों के साझा प्रस्ताव को पार्टी द्वारा यह कहते हुए खारिज कराया था कि मा.क.पा की राजनीतिक स्थिति ऐसी नहीं है कि हमारा कोई नेता प्रधानमंत्री बनकर केंद्र की सरकार चलाये! उस वक्त भी देश के अनेक वाम चिंतकों और उदार-लोकतांत्रिक लेखकों ने कारात-लाइन की आलोचना की थी। माकपा के अंदर जारी मौजूदा दो-लाइन संघर्ष पर जाने-माने वामपंथी लेखक प्रो. रामशरण जोशी ने इस स्तम्भकार से बातचीत में कहा, ‘ मैं समझता हूं, मा.क.पा को आज यह देखना चाहिए कि हमारे समाज और राजनीति में प्रधान अंतविरोध क्या है? मेरी मार्क्सवादी समझ के हिसाब से वह है-सांप्रदायिक फासीवाद बनाम संवैधानिक लोकतंत्र। ऐसे में माकपा को सभी लोकतांत्रिक दलों और अपेक्षाकृत सकारात्मक और सेक्युलर शक्तियों से सहयोग और एकजुटता कायम करके बड़े खतरे से लड़ने की रणनीति बनानी चाहिए थी।’ लगभग यही बात दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव अली जावेद ने कही। जावेद ने कहा, ‘आज भारत में सेक्युलर, लोकतांत्रिक और वामपंथी शक्तियों के बीच बड़ी एकता का जरूरत है।’ पर मा.क.पा ने सांप्रदायिकता, कट्टरता और निरंकुशता के बढ़ते खतरों के विरूद्ध सेक्युलर और लोकतांत्रिक शक्तियों की व्यापक एकता कायम करने की अपने ही महासचिव की राजनीतिक लाइन को फिलहाल खारिज कर दिया है।

(वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार उर्मिलेश उर्मिल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)