सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच ऐसी कटुता और शत्रुता लोकतंत्र की सेहत के लिये ठीक नहीं

विपक्ष भी प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान लगातार नारेबाजी करता रहा, जो संसदीय आचरण के अनुरूप नहीं कहा जा सकता।

New Delhi, Feb 09 : बीते साढ़े तीन सालों के दरम्यान भारतीय राजनीति में सत्तापक्ष और विपक्ष के रिश्ते लगातार खराब हुए हैं। आलोचना-समालोचना और संवाद के बजाय यह सिर्फ कटुता और शत्रुता तक सीमित होकर रह गये हैं। यह कई मौकों पर नजर आता रहा है। बुधवार को एक बार फिर यह उजागर हुआ, जब संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर पेश धन्यवाद प्रस्ताव पर निर्णायक चर्चा हो रही थी। प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के दौरान राज्यसभा में विपक्ष की तरफ से लगातार शोर-शराबा होता रहा। लोकसभा में उनके भाषण के दौरान विपक्षी सदस्य ने जमकर नारेबाजी की। प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान संसद में ऐसे दृश्य कम देखे जाते हैं। आमतौर पर सदन में जब प्रधानमंत्री या विपक्ष के मुख्य नेता बोलते हैं तो पूरा सदन उन्हें ध्यान से सुनता है। अपने-अपने कार्यकाल में डा. मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे बेहद सम्मानित प्रधानमंत्रियों को भी कुछेक मसलों पर विपक्षी-नारेबाजी का सामना करना पड़ा था। लेकिन तब दोनों पक्षों के बीच इस तरह कटुता और शत्रुता का माहौल नहीं दिखता था। संसद की कार्यवाही के कवरेज के लगभग दो दशकों के अपने अनुभव की रोशनी में यह बात मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच कटुता और शत्रुता का ऐसा माहौल पहले कभी नहीं देखा गया।

Advertisement

इस पर सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों को विचार करना चाहिए। आखिर ऐसा माहौल क्यों बना है? सत्तापक्ष को यह बात शिद्दत से सोचना चाहिए कि लंबे समय बाद भाजपा को जनता का अपार समर्थन मिला और सन् 2014 में उसकी अगुवाई में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी। सत्तारूढ़ दल के नेता नरेंद्र मोदी एक ताकतवर प्रधानमंत्री बनकर सामने आये। लेकिन विधायी कार्य, संसदीय संवाद और राजनीतिक विमर्श के स्तर पर आज सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच गहरी खाई पैदा हो गई है। इसका असर गवर्नेंस पर भी साफ-साफ दिख रहा है। यह सही है कि हमारे जैसे लोकतंत्र में गवर्नेंस की पूरी जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है। लेकिन गवर्नेंस को आधार मिलता है, संसदीय कार्य, कानून निर्माण की प्रक्रिया, संसदीय बहसों और संसदीय समितियों के जरिये होने वाले विमर्श से। इसमें विपक्ष की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह अपनी ठोस भूमिका और कारगर रणनीति से सत्तापक्ष को गलत करने या गलत दिशा में जाने से रोक सकता है। इसके लिये जरूरी है कि सत्तापक्ष संवेदनशील हो और वह उस जनता के प्रति जवाबदेह हो, जिसने सरकार के चलाने के लिये उसे चुना है।

Advertisement

इस वक्त सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच यह रिश्ता नजर ही नहीं आता। दोनों अपनी-अपनी भूमिका निभाने में चूक रहे हैं। बीते बुधवार, राज्यसभा और लोकसभा में बारी-बारी से प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्षी दलों और नेताओं पर बेहद तीखी और कटुता भरी टिप्पणिय़ां कीं। संसद के पटल पर ऐसी कटुता प्रदर्शित करने की कोई जरूरत ही नहीं थी। संसद में विमर्श का स्तर किसी चुनावी-रैली जैसा नहीं होता, जिसमें नाम ले-लेकर तीखे वार-प्रतिवार किये जायं! संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर पेश धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान बीते दो दशकों में ऐसा कब हुआ, कम से कम मुझे याद नहीं! हां, देश की कुछ विधानसभाओं में ऐसा पहले हो चुका है। आमतौर पर ऐसी बहस में राष्ट्रपति के अभिभाषण में उठे प्रमुख मुद्दों या उसमें शुमार न हो पाने वाले राष्ट्रीय या जनहित के अहम् मुद्दों पर चर्चा होती है। लेकिन बुधवार को तो संसद के दोनों सदनों का नजारा ही कुछ अलग था।

Advertisement

हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लंबे भाषण में रोजगार योजना, संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के अपनी सरकार के प्रस्ताव, ओबीसी आयोग को संवैधानिक मान्यता और बांस के पेड़ को घास की श्रेणी में लाने के सरकार के फैसले सहित कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों और प्रस्तावों का उल्लेख किया। लेकिन उनके भाषण का मूल स्वर मुख्य विपक्षी दल और उसके नेताओं पर तीखे वार करने का था। उऩके भाषण में आज की ठोस परिस्थिति और जरूरतों के बजाय कुछ काल्पनिक और अवधारणात्मक प्रस्थापनाओं पर जोर था। मसलन, उन्होंने बहुत जोर देकर कहा कि सन् 1947 में जवाहर लाल नेहरू की जगह सरदार बल्लभ पटेल देश के प्रधानमंत्री बने होते तो देश ऐसा नहीं होता, कश्मीर समस्या जैसी समस्या भी नहीं होती! अब यह सन् 2018 में कैसे तय हो सकता है कि सरदार पटेल प्रधानमंत्री बने होते तो देश ऐसा नहीं होता या कि कश्मीर समस्या पैदा ही नहीं होती! इतिहास का ठोस तथ्य ये है कि उस वक्त सरदार पटेल ही देश के ताकतवर गृहमंत्री थे और कश्मीर मामले में उनके अपने मंत्रालय की सबसे अहम् भूमिका होती थी। यह भी सही है कि महात्मा गांधी की नृशंत हत्या के बाद पटेल के मंत्रालय ने ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया था। ऐसे में एक ही दल के नेता नेहरू और पटेल को एक-दूसरे के ‘विलोम’ के रूप में पेश करना कम से कम ऐतिहासिक तथ्यों पर तो आधारित नहीं लगता।

विपक्ष भी प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान लगातार नारेबाजी करता रहा, जो संसदीय आचरण के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। वह बार-बार ऱाफेल लड़ाकू विमान रक्षा सौदे का ब्यौरा पेश करने की मांग उठाता रहा, जिस पर सरकार ने पहले ही साफ कर दिया था कि वह राफेल लड़ाकू विमानों की कीमत नहीं बताएगी क्योंकि इससे रक्षा सौदे की शर्तों का उल्लंघन होता है। जवाबी तेवर में प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व राष्ट्रपति और वरिष्ठ कांग्रेस नेता रहे आर वेंकटरमण की आत्मकथा का हवाला देते हुए कांग्रेस पर अपनी सरकारों के दौरान रक्षा सौदों में अकूत धन कमाने और उसका उपयोग चुनावी खर्च में करने का आरोप मढ़ दिया। उन्होंने कई विपक्षी नेताओं के नाम ले-लेकर तीखे वार या व्यक्तिगत कटाक्ष किये। इस तरह, पिछले सत्र की तरह ससंद के मौजूदा सत्र में भी मुख्य विपक्षी दल और सत्तापक्ष के बीच कटुता और शत्रुता का सिलसिला जारी रहा, जो देश के लोकतंत्र की सेहत के लिये शुभ नहीं!

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)