नई पीढ़ी के लिए पीरियड्स की बात कोई टैबू नहीं रही

सेनेट्री पैड्स ने न सिर्फ लड़कियों, महिलाओं की जिंदगी बदली, बल्कि सोच भी बदली, पीरियड्स शर्म की बात से आगे बढ़कर कुदरती बात बन गई। 

New Delhi, Feb 11 : जबसे होश संभाला, गांव में एक बात हमेशा खटकती थी। अचानक ही घर की किसी भी महिला का बिस्तर पलंग से हटकर जमीन पर हो जाता था। मेरी मां, भाभी, बड़ी बहन वो कोई भी हो सकता था। पांच दिन तक नीचे बिस्तर, बिस्तर क्या, उसे कथरी बोला करते थे हम लोग, पैबंद लगा गद्दा। न किसी को छूना, न किसी को छूने देना, न किसी को पास आने देना। बिल्कुल अछूत सा जीवन। हम लोग वजह पूछते तो बताया जाता-बिलारि क गंदा बुड़ाइल बाटिन, पांच दिन बाद शुद्ध होइहैं। (बिल्ली का मल पैर में लग गया है, पांच दिन बाद ही शुद्ध होंगी।)
हम लोग हैरान रहते थे कि आखिर वो कौन सी बिल्ली है, जो हर महीने ऐसी जगह ‘कांड’ कर देती है, जिसमें मेरी मां, मेरी भाभियों, मेरी बहनों का पैर लग जाता है। जिसकी वजह से हम पांच दिनों तक उनके पास नहीं जा सकते थे। बिल्ली हम लोगों की अघोषित दुश्मन बन गई। सवाल ये भी था कि अगर बिल्ली का गंदा हम लोगों यानी पुरुष वर्ग के पैर में लग जाता तो हम लोग क्यों अशुद्ध नहीं होते थे..? फिर ये कानून महिलाओं पर ही क्यों लागू होता है..? क्यों तपती गर्मी या फिर कड़कड़ाती ठंड में हर महीने पांच दिनों के लिए ये अछूत हो जाती हैं, महज बिल्ली की वजह से..? कभी-कभी नियम कानून तोड़कर मां के पास चले जाते, फिर तो मां और दिद्दा दोनों की डांट पड़ती। नहाने की सलाह दी जाती, सलाह क्या दी जाती, नहलवाया ही जाता था।

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समय बदला, उम्र बढ़ी, समय के साथ सब कुछ पता चल गया कि ये कोई बीमारी नहीं, बल्कि पीरियड्स है जिसकी वजह से हर महीने इन्हें पांच दिनों तक अछूतों जैसा व्यवहार झेलना पड़ता है। जिनके बारे में महिलाएं सिर्फ आपस में बात करती हैं, पुरुषों तक ये बात पहुंचती नहीं है। जिस महिला को पीरियड्स आ रहे हैं, उसका अलग बिस्तर, अलग खाना-पीना। पांच दिनों का वो कष्ट जो हमारी माएं, बहनें, भाभियां खुशी-खुशी स्वीकार करती थीं।
कुछ साल पुरानी बात है, मेरी एक सहकर्मी लड़की हर महीने बीमार हो जाती थी। दो-तीन दिन की छुट्टी तो जरूर लेती थी। बहानेबाज भी नहीं थी। एक रोज मैंने यूं ही पूछा- ये तुम्हें क्या हो जाता है, क्यों इतनी बीमार पड़ती हो। वो बोली-नहीं सर, बीमारी नहीं है, जब पीरियड्स आते हैं तो कम से कम दो से तीन दिन असहनीय दर्द होता है। दो दिन तक तो ब्लीडिंग भी ज्यादा होती है। वो बोल रही थी, मैं भौंचक था, उसके चेहरे पर शिकन नहीं थी। वो मेरे लिए सावधान होने का वक्त था कि जमाना तेजी से आगे बढ़ रहा है। नई पीढ़ी के लिए पीरियड्स की बात कोई टैबू नहीं रही। पीरियड्स की बात करने में हिचक नहीं रही। सेनेट्री पैड्स ने न सिर्फ लड़कियों, महिलाओं की जिंदगी बदली, बल्कि सोच भी बदली, पीरियड्स शर्म की बात से आगे बढ़कर कुदरती बात बन गई।

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लेकिन ये सिर्फ महानगरों की सच्चाई है, गांवों में, कस्बों में सेनेटरी पैड्स तो पहुंचे हैं, लेकिन महिलाओं की आजादी की सोच नहीं पहुंची है। दिल्ली में मेरे घर में अगर मां या बाबूजी में से कोई होता, उस वक्त पत्नी के पीरियड्स के दिन होते तो वो पांच दिन तक किचेन में नहीं जाती थीं। एक बार तो गजब हो गया। घर में मां थीं। पत्नी के साथ ‘बिल्ली कांड’ हो गया। सुबह मां को पानी कौन दे, चाय कौन दे। चलो वो तो मैंने कर दिया। सवाल उठा खाना कौन बनाए। इमरजेंसी में मेरठ से बड़ी दीदी को बुलवाया, तब जाकर बात बनी। यहां ये भी बता दूं, कितने भी आधुनिक हम हो गए थे, लेकिन वो मां थी, अगर पता हो जाता कि बहू पीरियड्स के दौरान किचेन में गई है, तो वो कतई कुछ खाती-पीती नहीं।

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मैं आज भी ऐसे कई घरों को जानता हूं, जहां आज भी 5 दिनों तक महिलाओं के साथ अछूत जैसा व्यवहार होता है। बातचीत में भी माहवारी या फिर पीरियड्स का नाम नहीं लिया जाता। ‘औरतों वाली समस्या’ कहा जाता है। एक शादी में मुझे पत्नी के साथ जाना था, लेकिन इसी समस्या की वजह से पत्नी नहीं जा पाईं। मेजबान ने अकेले आने की वजह पूछी, तो मेरे भी मुंह से यही निकला- कुछ औरतों वाली समस्या हो गई थी।
पीरियड्स पर अब खुलकर बातें हो रही हैं, यहां तक कि पैडमैन नाम की फिल्म भी आ रही है। मैं सोचता हूं कि असली पैडमैन अरुणाचलम मुरुगनंथम के सामने कितनी मुश्किलें आई होंगी, सोचता हूं तो सिहर जाता हूं। गांव के औरतों के बीच कपड़े के बीच पैड के इस्तेमाल की बात कैसे उन्होंने पहली बार की होगी और बार-बार की होगी..?

बदलते दौर के साथ ही प्रचलन में स्पेशल पैड्स बने, वरना तो पीरियड्स के दिनों में महिलाओं को कपड़ा पकड़ा दिया जाता था। अभी भी कौन सी महाक्रांति हो गई है, कपड़ों का इस्तेमाल तो आज भी देश के बड़े हिस्से का सबसे बड़ा सच है। इस सच्चाई से ज्यादा त्रासद है वो रूढ़िवादी सोच, जिसमें आज भी देश के बड़े हिस्से में वो लड़की, महिला अछूत मानी जाती है, जिसे पीरियड्स हुए हों। अगर हर मां ये सोच ले कि जो कष्ट उसने भोगा है, झेला है, उसे वो अपनी बेटी को नहीं झेलने देगी तो बहुत हद तक हम अपनी बेटियों को इस त्रासदी, अछूत होने के इस कष्ट से निकाल लेंगे। मां ही क्यों, जरूरत पड़े तो पिता और भाई को भी ये पहल करनी चाहिए। उन्हें भी जानना चाहिए, समझना चाहिए कि पीरियड्स कोई संक्रामक बीमारी नहीं, बस एक कुदरती और शारीरिक प्रक्रिया है, जिससे हर लड़की और महिला को गुजरना होता है। उम्मीद ये भी है कि इसको लेकर हमारे समाज की सोच और भी बेहतर होगी। जो खुलापन इसको लेकर महानगरों में है, उसका असर गांवों तक पहुंचेगा।

(वरिष्ठ पत्रकार विकास मिश्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)