बिहार : 1990 से 2005 तक लगे जंगलराज टैक्स लोगों को अभी भी याद है

संजय सिंह लालू जी को बदनाम करने लिए अंट -शंट बयान देता रहता है या इस जंगलराज टैक्स में कुछ सच्चाई भी है ?

New Delhi, Feb 13 :  ‘1990 से लेकर 2005 तक के जंगलराज का टैक्स लोगों को अच्छी तरह याद है।’ जदयू के प्रदेश प्रवक्ता संजय सिंह का यह बयान आज के ‘जागरण’ में छपा देख एक नये राजनीतिक कार्यत्र्ता ने मुझसे पूछा ,‘ आप तो पुराने पत्रकार हैं। संजय सिंह लालू जी को बदनाम करने लिए अंट -शंट बयान देता रहता है या इसमें कुछ सच्चाई भी है ?

Advertisement

मैंने उन्हें अपना ही एक कटु अनुभव सुना दिया।
सुन कर वे चुप हो गए।
उसे मैं यहां भी दर्ज कर दे रहा हूं।
पटना के पास के एक गांव में मैंने 1990 में 24 सौ वर्ग फीट एक सहकारी समिति से जमीन खरीदी।
पति-पत्नी के वेतन से सेविंग और एक रिश्तेदार से कर्ज लेकर जमीन के लिए 29 हजार रुपए जुटाए थे। जमीन तो हो गयी,पर बाउंडरी के लिए पैसे नहीं थे।
जब कुछ पैसे हुए तो एक दिन अमीन और संबंधित कोआपरेटिव सोसायटी के एक व्यक्ति को लेकर जमीन पर गया।

Advertisement

नापी हो ही रही थी कि बगल से कुछ बाहुबली आ गए। उनमें से एक ने आदेशात्मक लहजे में कहा कि नापी बंद करिए।
मैंने पूछा ,‘ क्यों ?
उसने कहा कि ‘बहस मत कीजिए, बंद करिए।’
किसी ने उससे कहा कि ये हिन्दुस्तान अखबार के राजनीतिक संपादक हैं, इन पर थोड़ा रहम कीजिए।
उस बाहुबली ने कहा कि ‘ये क्या होता है ?’
एक डी एस.पी. नापी कराने यहां आए थे। मैंने उनसे कहा कि भागिए नहीं तो मार छुरा के लाद फाड़ देंगे। वे भाग गए।
इस पर मैंने कहा कि मैं भी जा रहा हूं।
यह कह कर मैं वहां से हट गया।

Advertisement

कुछ लोगों ने मुझे सलाह दी कि आप ऊपर से मदद लीजिए। आपको तो सब जानते हैं। मैंने कहा कि मैं किसी से मदद नहीं लूंगा।
जमीन के लिए मैं किसी से विनती नहीं करूंगा।
जो होना होगा, होगा। जो कुछ अन्य लोग भोग रहे हैं, वही सब मैं भी भोगूंगा।
मेरे एक रिश्तेदार ने कहा कि आप बड़ा आरक्षण का समर्थन करते थे। अब क्या हुआ ?
मैंने कहा कि अब भी करता हूंं । दोनों दो बातें हैं।
फिर 2005 के बाद मैं उस जमीन पर गया। बिना किसी मदद , हो-हंगामा के नापी भी हो गयी और बाउंडरी भी हो गयी।
पर इस बीच आसपास काफी बाउंडरी हो चुकी थी।जिन लोगों ने उस बाहुबली को रंगदारी दे दी,उनका काम हो गया।
मुझे नुकसान यही हुआ कि 24 सौ के बदले 22 सौ वर्ग फीट पर ही संतोष करना पड़ा।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)