हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गये लेकिन याद आते हैं
शायरी के अलावा ग़ालिब के जीवन काल के बाद प्रकाशित उनके पत्रों को भी उर्दू अदब और उस युग के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है।
New Delhi, Feb 15 : मिर्ज़ा ग़ालिब मनुष्यता और प्रेम की अथक तलाश तथा शाश्वत तृष्णा की गहन अनुभूतियों के विलक्षण शायर थे। उनकी ग़ज़लें भारतीय ही नहीं, विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। उन्हें उर्दू का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है। उनकी शायरी में जो बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, वह है तमाम अभावों और विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी अक्खड़ता और स्वाभिमान। खुद्दारी ऐसी कि महबूबा के लिए समर्पण तो है, लेकिन अपने व्यक्तित्व को साफ़ बचा ले जाने की ज़िद भी।
मीर तकी मीर के बाद फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में आत्मसात और लोकप्रिय करवाने का श्रेय उन्हें जाता है। ग़ालिब की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि वे प्रतिरोध के शायर हैं। शायरी के परम्परागत विषयों का प्रतिरोध, स्थापित जीवन मूल्यों का प्रतिरोध, मज़हबी कट्टरता और अंधविश्वासों का प्रतिरोध और प्रेम के लिजलिजेपन का प्रतिरोध। ये चीज़ें उन्हें अपने पूर्ववर्ती और समकालीन सभी शायरों से अलग करती हैं। शायरी के अलावा उनके जीवन काल के बाद प्रकाशित उनके पत्रों को भी उर्दू अदब और उस युग के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। ग़ालिब की पुण्यतिथि (15 फरवरी) पर खिराज़-ए-अक़ीदत, उनकी एक ग़ज़ल के चंद अशआर के साथ !
तस्कीं को हम न रोएं जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हूरान-ए-ख़ुल्द में तिरी सूरत मगर मिले
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले
साक़ी-गरी की शर्म करो आज वर्ना हम
हर शब पिया ही करते हैं मय जिस क़दर मिले
तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम
मेरा सलाम कहियो अगर नामा-बर मिले
लाज़िम नहीं कि ख़िज़्र की हम पैरवी करें
जाना कि इक बुज़ुर्ग हमें हम-सफ़र मिले
ऐ साकिनान-ए-कूचा-ए-दिलदार देखना
तुम को कहीं जो ‘ग़ालिब’-ए-आशुफ़्ता-सर मिले