मेट्रो से मेट्रो को देखना

मेट्रो से मेट्रो को देखना और समझना अच्छा लगा।

New Delhi, Feb 18 : आज मैने जीवन में पहली बार दिल्ली मेट्रो से सफर किया। अपने आवास वसुंधरा गाजियाबाद से उत्तरी पुरा पीतमपुरा जाने के लिए। पीतमपुरा में मेरी बेटी रहती है। अभी तक उसके यहां अपनी गाड़ी से ही जाता था लेकिन आजकल नियमित ड्राइवर मेरे पास है नहीं क्योंकि मेरे मेरठ जाने के बाद मेरे पुराने ड्राइवर ने अपनी गाड़ी खरीद ली है और वह उसे टैक्सी में लगाए है तथा खुद ही चलाता है। कोई ढंग का ड्राइवर मिला नहीं इसलिए अधिकतर गाड़ी मुझे ही चलानी पड़ती है। अब पीतम पुरा जाने के लिए या तो मैं खुद गाड़ी चला कर करीब ३० किमी का सफर तय करता और तमाम जगह जाम के झाम में फंसता। इसलिए दामाद ने सुझाया कि आप दिलशाद गार्डेन में गाड़ी पार्क करिए और मेट्रो से आ जाइए। कोहाट एनक्लेव उतरिएगा वहीं से मैं आपको पिक कर लूंगा।

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दिलशाद गार्डेन में गाड़ी पार्क कर मैं पहले तो टिकट खरीदने के लिए लाइन में लगा फिर किसी ने बताया कि लंबी लाइन में लगने की बजाय एक कार्ड बनवा लीजिए। सौ रुपये का एक कार्ड बनवाकर मैं प्लेटफार्म में पहुंचा। अपार भीड़ और भांति-भांति के लोग। मुझे बताया गया कि पहले कोच में सफर नहीं करना है वह महिलाओं के लिए रिजर्ब है। इसलिए मैं सब से आखीर की कोच की तरफ भागा लेकिन पता चला कि यहां से तो मेट्रो रवाना होगी इसलिए आई हुई ट्रेन का आखिरी कोच अब पहला कोच बन गया है। अजीब मुसीबत थी। फिर मैं दूसरे कोच की तरफ भागा। खैर किसी तरह कोच में प्रवेश कर गया और संयोग देखिए कि एक सीट भी खाली मिल गई। वाकई कोच आरामदेह था। स्टेशन और कोच की साफ-सफाई अपने देश के किसी भी रेलवे स्टेशन का कम एअरपोर्ट जैसी सफाई का अहसास ज्यादा करा रहा था। कुछ देर बाद मेट्रो चल पड़ी। अशुद्ध हिंदी और शुद्ध अंग्रेजी में घोषणाएं हो रही थीं। स्टेशन बाईं ओर आएगा या दाईं ओर बताया जा रहा था। साथ ही यह भी कि एक तो दरवाजे से सटकर नहीं खड़े हों दूसरे मेट्रो ट्रेन रुक जाने पर ही उतरें। झिलमिल स्टेशन पार हो जाने के बाद जब मानसरोवर पार्क स्टेशन करीब आने को हुआ तो एकदम से एक नई घोषणा हुई कि जेबकतरों से होशियार रहें। मैं एकदम से हड़बड़ा गया। पाकेट संभाली और जेब में पड़ा हुआ सैमसंग के गैलेक्सी नोट-२ को टटोल कर देख लिया कि किसी ने पार तो नहीं कर दिया। वर्ना पर्स से मंहगा मोबाइल पड़ जाता। पर बाकी लोग जेबकतरी की इतनी भरपूर घोषणा के बावजूद निशाखातिर से दिखे लेकिन इसके बावजूद अनुमान के आधार पर अपनी जेबों पर हाथ रखा।

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इसके बाद शाहदरा और वेलकम फिर सीलमपुर आने के कुछ पूर्व उद्घोषणा हुई कि अपने आसपास लावारिस वस्तुओं को देख लें बम हो सकता है। मैने अपनी सीट के नीचे देखा कुछ पड़ा तो नहीं है और यह सोचकर निश्चिंत हुआ कि कुछ नहीं है। इसके बाद स्लम बस्तियंा शुरू हुईं और शास्त्री पार्क स्टेशन आया। यहां का स्टेशन भी स्लम जैसा ही था। यहां से मेट्रो चली तो कुछ ही देर बाद नाले सी पतित पावन कहलाने वाली यमुना देखी। एक नौजवान यात्री ने यमुना के गंदे पानी की तरफ हाथ जोड़े फिर कुछ बुदबुदाया और अपने कानों तथा कंठ को छुआ। अब कश्मीरी गेट, तीस हजारी और पुल बंगस स्टेशन पड़े। यह सब देखकर लगा कि मेट्रो अब इतिहास की सैर करा रही है। किले, मजारें और कंगूरे दिखने लगे। बंगस पठानों की कद काठी वाला मोबाइल को कान से सटाए एक अधेड़ यात्री चढ़ा। वह इतनी जोर-जोर से बोल रहा था कि आसपास के सब यात्री जान गए कि वो अभी अपनी दूकान में नहीं पहुंचा और मेट्रो में सवार है। वह न हिंदी बोल रहा था न उर्दू। एक अजीब सी भाषा थी उसकी। बिल्कुल प्रभाकर माचवे की एक कविता की तरह “तिल्क नगर के सिलक स्टोर” जैसी। तभी अचानक वह बोला लाहौल बिला कूवत! तब पता चला कि शायद वह बंगस पठान ही है। इसके बाद प्रताप नगर, शास्त्री नगर और इंद्रलोक आया लेकिन मेट्रो ने अंग्रेजी में इसे इंदरलोक बना दिया था। फिर ऐसी बस्तियां दीखने लगीं कि जैसे हम शताब्दी से फीरोजाबाद और राजधानी से धनबाद देखते हैं। ऐसा लगा कि जैसे अब वासेपुर आ गया।

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इसके बाद कन्हैयानगर और केशवपुरम पड़े। लकलकाती और दमदमाती, चमकती दिल्ली दिखने लगी। यूं महसूस हुआ कि अचानक हम शहर के डाउन जैसे टाउन से निकलकर सिविल लाइन्स जैसे इलाके में आ गए हैं। इसके बाद शुरू हुआ उस दिल्ली का सफर जो अपनी शान में योरोप को भी मात करती है कम से कम पूर्वी योरोप को तो जरूर ही। नेता जी सुभाषचंद्र बोस प्लेस। कांच का आलीशान व्यावसायिक प्रतिष्ठान। एक नई दुनिया शुरू हो गई और बस उसके बाद का अगला स्टेशन अपना गंतव्य था। कोहाट एनक्लेव। स्टेशन से बाहर आया तो दामाद जी खड़े थे। मैने कहा कि कार पार्क क्यों की यहीं गाड़ी में बैठे रहते? मैं तो आपके आने वाली दिशा में ही उतरा था। वे मुस्कराए और पार्किंग की तरफ बढ़े। एक विशाल गेट के भीतर घुसे तो सामने ही बेटी की कार पार्क थी। मैं चौंका बोला आ गए क्या। तब दामाद जी मुस्कराए और बोले हां। मैने कहा मार डाला होली के दो रोज पहले बेटी के यहां आया और गुझिया तक नहीं ले पाया। मैने सोच रखा था कि रास्ते में बीकानेर मिष्ठान्न से गुझिया खरीद लूंगा। पर यह क्या हुआ दामाद की कोठी सामने थी। और मैं खाली हाथ। बीवी को पता चलेगा तो जिंदा नहीं रहने देगी!
लेकिन मित्रों मेट्रो से मेट्रो को देखना और समझना अच्छा लगा। देखता हूं अगला नंबर कब आएगा? पर एक सवाल मुझे अभी तक परेशान किए हुए है कि मेट्रो की उद्घोषणा में सिर्फ मानसरोवर पार्क में यह क्यों बोला गया कि जेबकतरों से सावधान! और सीलमपुर में बम की चेतावनी क्यों दी गई? बम कहीं भी हो सकता है और जेब तराशने वाले पॉश इलाकों में ज्यादा मिल जाएंगे।

(नोट- साल 2013 की फरवरी में लेखक ने पहली बार मेट्रो में सफ़र किया था)
वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)