रुपये की कालकोठरी में काम कर रहे ग़ुलाम बैंकरों की दास्तान- पार्ट 2

बहुत से बैंकरों को लगा कि वे देश सेवा कर रहे हैं। इस आर्थिक अपराध को वे किसी राष्ट्रवादी आंदोलन की तरह देखने लगे।

New Delhi, Feb 23: पागलपन की हद तक बैंकरों के भेजे गए हज़ारों मेसेज पढ़े जा रहा हूं। गर्दन में दर्द हो गया है। ये मेसेज मुझे शोषण, बेईमानी और यातना की ऐसी दुनिया में लेकर गए हैं जहां हर चेहरे से ख़ून के आंसू निकलते दिख रहे हैं। नोटबंदी ने बैंकरों को भी लूटा है। हमारा विपक्ष अपनी अनैतिकताओं के बोझ ने दबा होता और चुनावी हार-जीत से अलग होकर नोटबंदी जैसे राष्ट्रीय अनैतिक अपराध पर सवाल करता तो इसकी क्रूर सच्चाइयां हमारे सामने होतीं। विपक्ष ने किया भी मगर जनता ने साथ नहीं दिया और बैंकर ख़ामोश रहे। अब जो पढ़ रहा हूं उसका कुछ सार पेश कर रहा हूं। नोटबंदी के दौरान बड़ी संख्या में कर्मचारियों को अपनी जेब से पैसे भरने पड़े हैं। नोट गिनने की मशीन नहीं थी। एक ही कैशियर था। लिहाज़ा जो भी स्टाफ था नोट गिनने लगा। इस क्रम में दो ग़लतियां हुईं। बहुत से जाली नोट आसानी से बदल दिए गए। दूसरी चूक यह हुई कि कई बैंकरोंका हिसाब जब कम निकला तो उन्हें बकाया पैसा अपनी जेब से भरना पड़ा। रात रात भर काम करने के लिए बैंकरोंको कुछ नहीं मिला.

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एक बैंकर ने लिखा है कि नोटबंदी के दौरान हज़ार कस्टमर को डील करना पड़ता था। करोड़ों में कैश जमा करने पड़े। एक बार उसके हिसाब से 50,000 रुपए कम निकले। बैंक में उसकी किसी ने मदद नहीं की। अपने घर वालों से पैसे लेकर भरने पड़े। जबकि उस व्यक्ति की सैलरी मात्र 21000 रुपये थी। एक कैशियर से 38,000 वसूली के आदेश आए तो टेलर ने लोड बांट लिया और अपनी जेब से 19000 रुपये दिए। एक महिला बैंकर ने बताया है कि नोटबंदी के वक्त कैश काउंटर पर वह अकेली थी। इतनी भीड़ थी कि दबाव में नोट बदलने पड़े थे। 1000 के 28 नोट ख़राब निकले। बैंक ने उस महिला से 28000 रुपये वसूल लिए। इस तरह नोटबंदी जैसे राष्ट्रीय नैतिक अपराध की सज़ा बैंकरोंने भी भुगती। एक बैंकर ने बताया कि जितने भी जाली नोट पकड़े गए उसकी भरपाई बैंकरोंकी जेब से हुई है। अगर यह सही है तो बैंकरों के साथ हुई इस लूट से मैं काफी व्यथित हूं। भारतीय रिज़र्व बैंक ने बताया था कि नोटबंदी के दौरान 42 करोड़ जाली नोट ज़ब्त हुए थे। तो क्या ये 42 करोड़ कैशियर और टेलर की जेब से निकाले गए?

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बैंकर ने तो यह भी बताया कि जब शाखा से पैसा अपने बैंक की करेंसी चेस्ट में पहुंचा तो वहां जो जाली नोट पकड़े गए उसकी भी वसूली कैशियर से हुई। जबकि नोटबंदी के वक्त बैंक का पूरा स्टाफ नोट गिन रहा था। हिसाब में ग़लती होने पर या जाली नोट आ जाने पर उसकी वसूली कैशियर पर लाद दी गई। मैं लगातार बैंकों पर फेसबुक पेज@RavishKaPage पर लिख रहा हूं। मगर उस दौरान के अनुभवों को किसी ने नहीं बताया। आख़िर इस चुप्पी को बैंकरों और उनके आस पास का समाज कैसे पचा सका? क्या हमने अपनी नागरिकता सरेंडर कर दी है, बोलने के अधिकार सरेंडर कर दिए हैं? क्या उन्हें नहीं समझ आया कि ये लूट है? नोटबंदी सरकार की ग़लती थी। रातों रात बिना तैयारी के सब पर थोप दी गई। उस पर बैंकरोंने जान लगाकर सेवा की लेकिन मिला क्या? उस दौरान हुई चूक की वसूली क्लर्क और कैशियर से हो रही है? अभी भी बैंकरोंमें ज़रा भी ईमान बचा है तो नोटबंदी के दौरान हुई इस लूट को समाज को बता दें। मीडिया से बात नहीं कर सकते, इंडिया से तो बात कर सकते हैं। बस में बताएं, रेल में बताएं, पान और चाय की दुकान पर सबको बताएं, शादी में रिश्तेदारों को बताएं, घरों में बताएं कि क्या बीती है उन पर। उनके साथ ग़लत हुआ है।

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28 साल की एक महिला बैंकर ने लिखा है कि नोटबंदी के दौरान उसने रात दो बजे तक बैंक में रहकर काम किया। जबकि उसका बच्चा 7-8 महीने का था। कई दिनों तक बच्चे की शकल नहीं देखी। महिला बैंकर अपने छह छह महीने के बच्चों को छोड़ देर रात कर बैंकों में काम कर रही हैं। बैंक की शाखा में छोटे बच्चे को रखने की छोड़िए शौचालय की कोई सुविधा नहीं है। एक बैंकर ने बताया कि इसी 22 फरवरी को ग़ाज़ियाबाद के कौशांबी ब्रांच की एक महिला बैंकर को ज़बरन फील्ड में भेजा गया। उसने तबीयत खराब होने की शिकायत की। मगर अधिकारी को टारगेट से मतलब था। अंत में उस महिला बैंकर की इतनी तबीयत बिगड़ गई कि एंबुलेंस बुलाकर अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। बैंकर अपने बूढ़े मां-बाप की सेवा नहीं कर पा रहे हैं। क्या हम एक नागरिक होने के साथ अपने नागरिकों के साथ हुए इस अत्याचार की दास्तान जानते हैं? बहुत से बैंकरों को लगा कि वे देश सेवा कर रहे हैं। इस आर्थिक अपराध को वे किसी राष्ट्रवादी आंदोलन की तरह देखने लगे। उन्हें लगा कि इस आंदोलन में रात रात जागने के बाद सरकार इनाम देगी लेकिन अब तो सैलरी भी नहीं बढ़ रही है। बैंकरों की सैलरी बढ़ने की जगह घटने लगी है। अब तो बैंकर ही रोज़ अपनी आंखों से देख रहे हैं कि किस तरह भ्रष्टाचार कायम है। वही बता दें कि क्या भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया है?

बैंकर हर तरह से सताए जा रहे हैं। आख़िर वे किस दिन के लिए इतनी यातना सह रहे हैं। एक महिला बैंकर ने लिखा है कि एक छुट्टी लेने के लिए पहले उसे बीमा की पालिसी बेचने के लिए कहा जाता है। बीमा बेचने का दबाव इतना है कि महिला बैंकर ने बताया कि उसने ख़ुद भी एक साल के भीतर दो दो बीमा पालिसी ली है ताकि टारगेट पूरा हो सके। यह सब किस हिन्दुस्तान के लिए बर्दाश्त किया जा रहा है। क्या हम एक बुज़दिल इंडिया बनाना चाहते हैं? रोएगा इंडिया, सहेगा इंडिया, डरेगा इंडिया बढ़ेगा इंडिया, ये हमारा कब से नारा हो गया है। क्या इस दिन के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानी हमें आज़ाद भारत सौंप कर गए थे? क्या यही है हमारा सुपर पावर इंडिया, विश्व गुरु भारत ? किसी भी बैंक के चेयरमैन ने अपने बैंकरों के साथ हो रहे इस अन्याय को लेकर आवाज़ क्यों नहीं उठाई? एक तो ये चेयरमैन घटिया शूट पहनते हैं, न फीटिंग अच्छी होती है न रंग अच्छा होता है। टाई भी अच्छी नहीं होती मगर शेखी ऐसी झाड़ते हैं जैसे कहीं के नवाब उतरे हों। ये किस बात के चेयरमैन हैं, जो अपने कर्मचारियों के साथ हो रहे इस भयंकर शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते हैं। क्या ये कुर्सी के पीछे सफेद तौलिया रखने के लिए और हुज़ूर के सामने सर झुकाने के लिए चेयरमैन बनते हैं?

(वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)