दो बड़े मसले हैं, जिन्हें बीजेपी ने भुनाया, यही माणिक सरकार के पतन की वजह बनी

कहा जाता है कि माणिक सरकार अपने वेतन का सिर्फ 10 हजार ही अपने पास रखते हैं, बुद्धदेव भी सिर्फ 5 हजार रुपये ही लेते थे।

New Delhi, Mar 04 : त्रिपुरा राज्य में माणिक सरकार की सरकार का पतन और देश भर में पसर रही भाजपा की विश्वसनीयता अलग-अलग मसले हैं. कलफदार अद्धी का कुर्ता पहनने वाले माणिक सरकार देखने में संभ्रांत पुरुष लगते हैं. वामदलों की यह परंपरा रही है कि सरकार चलाने वाले लोग अपने वेतन का कुछ हिस्सा रखकर बांकी पार्टी को वापस कर देते हैं. यह कितनी उचित है कहना मुश्किल है, क्योंकि आज के दौर में सामान्य जीवन जीने के लिये कुछ पैसों की जरूरत होती है.

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कहा जाता है कि माणिक सरकार अपने वेतन का सिर्फ 10 हजार ही अपने पास रखते हैं, बुद्धदेव भी सिर्फ 5 हजार रुपये ही लेते थे. हालांकि माणिक सरकार की पत्नी सरकारी सेवा में है और उन्हें ठीक ठाक सैलरी मिलती होगी. उनके जीवन में खाने-पीने की तकलीफ कम होगी. फिर भी यह सच है कि वे आम आदमी की तरह रहते हैं और वामदल इस बात को अपनी ब्रांडिंग के तौर पर भुनाते रहते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले में वामदलों का ट्रैक रिकॉर्ड बेहतर है मगर फिर भी जगह-जगह ये खारिज हो रहे हैं. वजह यह है कि बदले माहौल में उनके पास कोई एक्शन प्लान नहीं है. लोगों की अपेक्षाएं सरकार से लगातार बढ़ रही है. आर्थिक विकास इन अपेक्षाओं में सबसे ऊपर है. मगर यह विडंबना है कि देश के सबसे शिक्षित राज्य त्रिपुरा में सबसे अधिक बेरोजगारी है. लगभग 20 फीसदी.

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आखिर 1978 से आजतक जिस राज्य में लगभग पूरी अवधि में वामदलों का ही शासन हो, वहां रोजगार और गरीबी उन्मूलन के लिये कोई कारगर कार्यक्रम न होना आखिर किसका फेल्योर है? उसी तरह त्रिपुरा के आदिवासी समूह लगातार अपनी अस्मिता के लिये संघर्षरत रहे हैं, उनकी भावनाओं को तुष्ट करने के लिये माणिक सरकार ने क्या किया?
यही दो बड़े मसले हैं, जिन्हें बीजेपी ने भुनाया और यही त्रिपुरा में वाम शासन के पतन की वजह बनी. वामदलों को इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि वे लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहे. इनके लगातार सिमटने की वजह भी यही है. इनके पास विरोध के लिए तथ्य और आंकड़े भरपूर हैं, भ्रष्टाचार के मसले पर इनका ट्रैक रिकॉर्ड भी बेहतर है. मगर इनके पास कोई ढंग का आर्थिक कार्यक्रम नहीं है.

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सोवियत रूस का मॉडल फेल हो गया है, चीन में कहने भर को वाम सरकार है, उसका मॉडल पूंजीवाद का मॉडल है. यूपीए की सरकार में वाम विचारकों ने मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, मिड डे मील जैसी योजनाओं को गरीबी और रोजगार उन्मूलन के उपाय के रूप में प्रोमोट किया. इनसे समस्या मिटी नहीं, बस भ्रष्टाचार बढ़ा. अगर एक विकल्प के तौर पर वामदल मजबूत होना चाहता है तो उसके पास एक प्रोग्राम होना ही चाहिये. अभी भी वे केरल में बचे हैं, वहां इसे लागू कर देश को दिखा सकते हैं.
अब सवाल यह है कि विकल्पहीनता के इस दौर में एक छलावे के रूप में पसरती भाजपा क्या त्रिपुरा के लोगों की इन अपेक्षाओं को पूरा कर सकती है? इनसे कितनी उम्मीद रखी जाए. देश में चार साल से काबिज इस पार्टी के पास गरीबी और बेरोजगारी को लेकर क्या सचमुच कोई प्रोग्राम है भी?

अगर होता तो रेलवे के डी ग्रुप और एसएससी की परीक्षाओं के लिये देश का युवा वर्ग इतना परेशान नहीं होता, सड़क पर दौर धूप नहीं करता.
2014 से आज तक भाजपा एक छलावे के रूप में ही आगे बढ़ रही है. जिस छलावे की परख हिंदी पट्टी के लोगों को होने लगी है उसका जादू गैर हिंदी भाषी इलाकों में जग रहा है. उत्तरपूर्व ही नहीं, बंगाल और केरल, तमिलनाडु जैसे इलाके में भी इनकी संभावनाएं हैं. मगर जैसे कोलकोला का जादू उतरा वैसे इनका जादू भी क्षणिक है.
यह उतरेगा, मगर क्या तब हमारे पास कोई ढंग का विकल्प होगा? और अगर विकल्प नहीं हुआ तो क्या जनता हर कर एक मौका इन्हें ही नहीं दे देगी? यह मुमकिन है, क्योंकि अभी भी देश की राजनीति में किसी कारगर विकल्प की सुगबुगाहट सुनाई नहीं देती।

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)