भ्रष्टाचार : क्यों हुई जन-अनुभूति और नकारात्मक ?

जन -प्रतिनिधि अपने इलाके में जा कर इस भ्रष्टाचार को कम करा सकते हैं पर अधिकांश बैठकों में सांसद शायद हीं कभी जाते हैं।

New Delhi, Mar 05 : एक ताज़ा अध्ययन के अनुसार दुनिया के दो-तिहाई देश भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के मामले में पूर्व में तो छोडिये, हाल के वर्षों में भी कुछ नहीं कर रहे हैं. इनमें से अधिकांश में प्रजातान्त्रिक शासन है. क्या जनता को भ्रष्टाचार से कोई परहेज नहीं है, या फिर सत्ता के लिए उनका चुनाव गलत है अथवा यह मान लिया जाये कि सत्ता पर चाहे कोई बैठे, सिस्टम से भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हो सकता? ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के सन २०१७ के लिए जारी इस अध्ययन में भारत भ्रष्टाचार सूचकांक पर दो स्थान और पीछे (७९ से ८१ पर) खिसक गया है याने देश में इस शाश्वत सामाजिक व्याधि को लेकर जन-अनुभूति सन २०१६ के मुकाबले ज्यादा खराब हुई है. ध्यान रहे कि यह सर्वे जन-अनुभूति को लेकर किया जाता है और जब यह सर्वे किया गया होगा उस समय बैंक घोटाला नहीं हुआ था और साथ हीं नोटबंदी के प्रभाव को लेकर आम जनता में तकलीफ चाहे जो रही हो, इसे मोदी सरकार का भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अच्छा प्रयास माना जाने लगा था.

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आखिर इस जन-अनुभूति की वजह क्या है? प्रजातंत्र तो जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन माना जाता है और भारत सहित कई देश इसे कई दशकों से प्रयोग में ला रहे हैं. अगर इन देशों का जी डी पी तमाम खाने फांदता हुआ २५ सालों में छठें स्थान पर आ सकता है (१.६० लाख क्रोड़े रुपये) तो फिर जनता को क्यों लगता है कि भ्रष्टाचार ख़त्म करने में हमारा सत्ताधारी वर्ग उदासीन या अक्षम साबित हो रहा है? अगर एक निष्पक्ष विश्लेषण करें तो यह कह सकते कि पिछले चार साल के मोदी शासन में वर्तमान बैंक घोटाले को छोड़ कर कोई बड़ा भ्रष्टाचार सामने नहीं आया है. नोटबंदी में सबसे ज्यादा आहत भी भ्रष्ट लोग हुए और कष्ट के बावजूद आम जन यह माना कर “कि कुछ शुरू तो हुआ” , खुश हुआ. फिर जन -अनुभूति में नकारात्मकता घटने के बजाय क्यों बढी?

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इस कारण जानने के लिए भारत में भ्रष्टाचार की बदलती प्रकृति को समझना होगा. भ्रष्टाचार दो तरह के होते हैं — पहला भयादोहन (शेकडाउन सिस्टम) या सरकारी काम करने के पैसे जो कि भयादोहन का हीं एक परिष्कृत रूप है और दूसरा “सहमति से” (पेऑफ़ सिस्टम). द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की १२ वॉल्यूम की विस्तृत रिपोर्ट के वॉल्यूम ४ में इन दोनों प्रकार के भ्रष्टाचार के स्वरूपों की व्यापक विवेचना करते हुए इन्हें “कोएर्सिव” और “कोल्युसिव” नाम दिया है. पहले किस्म के भ्रष्टाचार में पुलिस का ट्रक वालों से पैसा वसूलना, ग्राम प्रधान का सरकारी सब्सिडी दिलाने के लिए गरीबों से पैसा लेना या लेखपाल का कर्ज माफी की पात्रता के लिए नाम आगे बढ़ाना या शहरों में मकान का नक्शा पास करवाने, जन्म – या मृत्यु प्रमाण देने या पासपोर्ट सत्यापन में पैसे लेना होता है. पेऑफ़ या कोल्युसिव सिस्टम के भ्रष्टाचार बैंक घोटाला, २ -जी स्पेक्ट्रम या तमान बड़े घोटाले आते हैं जिनमें एक सहमति होती है जैसे पुल बनाने में इंजिनियर और ठेकेदार के बीच. इस भ्रष्टाचार से समाज अप्रत्यक्षरूप से लेकिन बड़ा नुकसान सहता है. भारत सहित दुनिया के तमान देशों में पेऑफ़ सिस्टम का भ्रष्टाचार १९७० से शुरू हुआ और आज यह व्यापक रूप ले चुका है. इस विषय के जानकारों का मानना है कि इस भ्रष्टाचार को ख़त्म करना बेहद मुश्किल होता है क्योंकि इसका शिकार व्यक्ति नहीं पूरा समाज होता है जो कि अमूर्त है और उदार प्रजातंत्र में अदालतें सबूत और गवाह चाहती हैं लिहाज़ा भ्रष्ट व्यक्ति आराम से कोर्ट से छूट जाता है. २-जी स्पेक्ट्रम का हश्र सामने है.

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इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान मोदी सरकार में मंत्रियों की संलिप्तता के मामले तो छोडिये, बड़े भ्रष्टाचार के मामले नहीं हुए हैं. फिर क्यों इस मुद्दे पर लोगों की धारणा सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक बढी है? मोदी सरकार भी इसे नहीं समझ रही है. यह पहले किस्म के भ्रष्टाचार के जारी रहने से और कम न होने से बढी है. इसके दो कारण हैं. जन-कल्याण योजनाओं जैसे उज्जवला, गरीबों को मकान या शौचालय पर अनुदान की राशि हीं नहीं व्यापकता भी बढी लेकिन इसकी डिलीवरी में कहीं न कहीं भ्रष्ट राज्य अभिकरण की अपरिहार्य भूमिका होती है लिहाज़ा यह भ्रष्टाचार बढ़ गया है. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत राज्य सरकारों ने आवास सहायकों की अस्थायी नियुक्ति की. चूंकि ये घूस दे कर आये और इनका कार्यकाल अस्थायी है लिहाज़ा ये भी लूट में लग गए . गरीबी से नीचे रहने वाले लोगों में आवास के लिए पात्रता का प्रमाण ये हीं देते हैं अर्थात यह प्रमाणित करते हैं कि अमुक व्यक्ति के पास पक्का मकान नहीं है. फिर जब अगली क़िस्त का समय आता है तो उसके पहले भी इन्हें पिछले पैसे कितना काम हुआ का प्रमाण पत्र देना होता है. बिहार के नवादा जिले में एक विधायक को जब शिकायत मिली कि सुपात्र लोगों में से २२ के नाम पात्रता लिस्ट से गायब हैं और गौर-पात्रता वाले नाम जोड़ दिए गए है तो उसने आवास सहायक को बैठक में डांटा. उसने बताया कि मुखिया ने यह किया है. इस पर जब उससे विधायक ने कहा कि तुमने दस्तखत क्यों किया तो उसने बताया कि खंड विकास अधिकारी ने जबरदस्ती दस्तखत करवा लिए. याने मुखिया, सहायक , अधिकारी सभी इस लूट में शामिल हैं. तब उसने जिले के डी डी सी शिकायत की. अभी तक उस अधिकारी ने भी कुछ नहीं किया. जड़ें गहरी होती जा रही हैं. उत्तर भारत के राज्यों में इस तरह का भ्रष्टाचार हावी है. जाहिर है जब सर्वे में इन लाभार्थियों या लाभ से वंचित लोगों से पूछा जाएगा कि भ्रष्टाचार में पहले से कमी आयी या यह बढ़ा तो उसका जवाब भोगा हुआ यथार्थ के आधार पर होगा भले हीं वह मोदी और उनकी योजनाओं से खुश हो.

जन -प्रतिनिधि अपने इलाके में जा कर इस भ्रष्टाचार को कम करा सकते हैं पर अधिकांस बैठकों में सांसद शायद हीं कभी जाते हैं फिर इन परियोजनाओं के बारे में उनका ज्ञान भी सीमित होता है. प्रधानमंत्री का आदेश होई कि सांसद क्षेत्र में हर माह कम से कम तीन दिन बिताएं पर वे शाम को दिल्ली या राज्य की राजधानी से जिला मुख्यालय पहुंचते हैं अगले दिन क्षेत्र के बड़े लोगों के घर भोजन और सर्किट हाउस में रात बिता कर सुबह फिर दिल्ली के लिए रवाना –तीन का कोटा पूरा. नतीजा यह है कि जितनी विकास या जन कल्याण की योजनायें आयेंगी उतना हीं राज्य अभिकरणों में बैठे लोग भ्रष्टाचार करेंगे और उतना हीं कमज़ोर तबका त्रस्त होगा और नाराजगी बढ़ेगी.अब ज़रा तस्वीर का दूसरा चौकाने वाला एक और पहलू देखें. सन २०१३-१४ में सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार कृषि क्षेत्र की कुल आय जी डी पी का मात्र १५ प्रतिशत थी या यूं कहें कि लगभग ४.६० लाख करोड़ थी लेकिन ९,१४,५०६ लोगों के दावा किया कि उनके पास कृषि आय है और यह भी कि उन्होने खेती से उस वर्ष २००० लाख करोड़ रुपये का उत्पादन किया. याने वास्तविक सरकारी उत्पादन आंकड़ों से ४०० गुना या उस साल में देश के कुल जी डी पी (९० लाख करोड़ रुपये) से २२ गुना ज्यादा (एक सांख्यिकी असम्भावना!). लेकिन न तो उस समय की यू पी ए -२ सरकार इस पर चौंकी न हीं वर्तमान सरकार ने आयोग बैठकर इस काला धन सफ़ेद करने के लिए कृषि आय का झूठा आंकड़ा देने वालों को जेल की हवा खिलाई. यही वजह है दुनिया के दो -तिहाई देश प्रजातंत्र होने के बावजूद इस दंश को झेलते रहेंगे.

(वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)