लेनिन की मूर्ति टूटी और अमूर्त विचारों में प्रवाह आ गया

त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति जब टूट रही है, तो साम्यवादी उस साम्यवाद की दुहाई दे-देकर अपनी परेशानी जता रहे हैं।

New Delhi, Mar 08 : साम्यवाद उन्नत होते विचारों के चेतना में बदल जाने की निरंतर प्रक्रिया से चलता है,मूर्तियों की स्थापना या उसके तोड़ने-बचाने तहस-नहस होने से नहीं। लेनिन को जानने वाले भी उनके विचारों से ही उन्हें जानते हैं,उनकी नाक-नयन-केश-वेश से नहीं। लगभग वे सभी लोग,जिनका परिचय लेनिन से पहली बार हुआ होगा,उस परिचय में लेनिन के विचार ही रहे होंगे,फोटो-तस्वीरें और मूर्तियां तो मूर्त होती हैं। मूर्त यानी स्थूल।मूर्ति शब्द तो इसी मूर्त शब्द से निकला हुआ है। विचार मूर्त नहीं होते,वह हमेशा से सूक्ष्म यानी अमूर्त रहा है। चेतना के उन्नत होने की शर्त ही यही है कि आप अमूर्त होते हैे। जो कुछ आपके भीतर वैचारिक स्तर पर घट रहा है,वो आपके व्यवहार और चाल-चरित्र में सूक्ष्मता के साथ झलक रहा है।

Advertisement

जो अमूर्त होकर जनमानस में संचरित नहीं होगा, उसका अस्तित्व मूर्तता यानी मूर्तियों में बचना लगभग असंभव है। पैग़म्बर की मूर्ति कहीं देखी नहीं गयी।उनकी तस्वीरें किसी ने बनायी ही नहीं। पैग़्मबर को मालूम था कि मूर्तियां अक्सर विचारों की अमूर्तता को छीन लेती है। उन्हें ख़ूब पता रहा होगा कि मूर्तियां बनते ही व्यक्ति पूजा जाने लगता है,विचारकहीं दूर छूट जाता है। यही कारण है कि पैग़म्बर मोहम्मद की कोई मूर्ति नहीं है,लेकिन उनके विचार मुसलमानों के ज़ेहन में इतने ज़बरदस्त रूप से पैबस्त है कि उसी अमूर्तता से उनका जीवन चलता है। जो विचार दिखायी ही नहीं पड़ता है, उसे भला कोई कैसे छीन सकता है। अमूर्त विचारों से लड़ा भी नहीं जा सकता है, क्योंकि वह जीवन की सोच में रसा बसा होता है।

Advertisement

जिस धर्म को हम हिन्दू कहते हैं, उसके पतन की जड़ ही असल में मूर्तियां हैं। अगर आप अमूर्तता के लिहाज़ से इन मूर्तियों को देखें,तो पता चलता है कि हर एक देवी-देवताओं की मूर्तियां किसी न किसी अमूर्त विचारों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। लेकिन इसे समझने और क़ायम रखने के लिए भी अमूर्तता की ही आवश्यकता थी,जो मूर्ति बन जाने के बाद छीजती चली गयी,क्योंकि अमूर्तता में तो विचारों की प्रक्रिया की प्रधानता थी। मूर्तियों में तो बाहरी विश्वास दिखाना था,लिहाज़ा कर्मकांड महत्वपूर्ण होता गया।विचार कहीं छूट गया। लगभग हिन्दूओं को उसके द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति के पीछे का कोई ठोस पर्सेप्शन तक नहीं मालूम है। दरअस्ल,इस मालूम करने में भी वैचारिक प्रक्रिया आड़े आ जाती है। अमूर्त में नहीं जाना है,तो मूर्ति बनाकर मूर्तता से छल कर लेना बहुत आसान हो जाता है।विचारों से पलायन कर लेना सहज हो जाता है। दुनिया और कम से कम भारत पर होने वाले बाहरी या आंतरिक आक्रमण का इतिहास यही रहा है पहले मूर्तियां तोड़ी जाती रही,फिर उन मूर्तियों से जुड़े हुए प्रतीक तोड़े गये।मगर कल्पना कीजिए,जहां मूर्तियां ही नहीं,ठोस प्रतीक ही नहीं,वहां उन विचारों को कैसे तोड़ा जा सकता है,जिसका आपके ज़ेहन के बाहर कोई आकार-प्रकार ही नहीं है ?

Advertisement

बड़े लोगों की मूर्तियां बनाकर अक्सर उसके विचारों को कमज़ोर कर दिया जाता है। मूर्तियां बनते ही विचारों की सूक्ष्मता ग़ायब होने लगती है। अक्सर ही राजनीतिक व्यक्तित्व अपने जीवनकाल में अपने मासूम भक्तों(समर्थकों) द्वारा पूजे जाने लगते हैं। जबतक उनकी राजनीति में चमक होती है,वह अपनी मूर्तियों में दमकते रहते हैं। मूर्तियां बनते ही विचारों से ग़ायब होने लगते हैं। इस मायने में आर.एस.एस. और इस्लाम में बड़ी समानता दिखती है। इन्होंने किसी को अपनी मूर्ति नहीं बनायी है। आरएसएस के लिए झंडे का पूजा जाना ही महत्वपूर्ण है। वहां व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं है।वहां एक विचार तिरता है। इस संगठन के समर्थकों की संख्या तथा उनके समर्पण के हिसाब से संघ के लगातार बड़े होते जाने के कई कारणों में से एक अहम कारण उनके विचार का होना है।

जिस परिवार-समाज या संसार में विचार की सूक्ष्मता ग़ायब हो जाती है,वह स्थूल बनकर रिसर्च,तर्क और वैज्ञानिक नज़रिये को भी गर्क कर जाता है। ऐसा इसलिए,क्योंकि व्यक्तिपूजा विचारों की स्वतंत्रता के लिए बेहद ख़तरनाक है और बिना वैचारिक स्वतंत्रता के आप किसी स्थिर,वैज्ञानिक और तर्कवादी परिवार,समाज या संसार की कल्पना नहीं कर सकते। मूर्तिायां आपको अंधभक्त बनाती हैं,सूक्ष्म विचार यानी विचारों का दर्शन आपको उस विचार के प्रति आस्तिक बनाता है। आस्तिकता,आस्था पैदा करती है और आस्था निरंतर विचारों में रहने की स्थिरता देती है।

त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति जब टूट रही है,तो साम्यवादी उस साम्यवाद की दुहाई दे-देकर अपनी परेशानी जता रहे हैं, जिस साम्यवाद में विचारों की निरंतरता मायने रखती है,किसी मूर्ति की अहमियत की कोई जगह नहीं होती। मेरी व्यक्तिगत समझ है कि विचारों की मूर्तियां जितनी जल्दी टूटे,उतनी ही जल्दी विचारों को सम्भलने का मौक़ा मिलता है। लेनिन की मूर्ति के टूटने से वामपंथियों के बीच अगर पीड़ा का सैलाब उमड़ आया है,तो यक़ीन मानिये,ये वामपंथ के अनुयायी के रूप में कुछ और हैंं,विचारों की मूर्ति बनाकर मूर्तता में यक़ीन करने वाले ये लोग एक अलग क़िस्म के अंध-भक्त हैं। इस भक्ति से कॉमरेडों का मोहभंग जितना ही जल्दी होगा,वो वामपंथ को उतना ही ज़्यादा समझ पायेंगे,उसके क़रीब उतना ही आ पायेंगे।

मेरी आपकी मुलाक़ात चेतना को उन्नत बनाने में दिन रात लगे ऐसे कई वामपंथ के मुसाफिरों से सड़क-गली मुहल्लों में होती रहती है,जिन्हें सीपीएम,सीपीआई आदि-आदि वामपंथी पार्टियों के दफ़्तर तक का अता-पता भी मालूम नहीं है। आप उन्हें हिन्दुू-मुस्लिम,ऐसा-वैसा,ये-वो कुछ भी कह सकते हैं। उन्हें अपनी चेतना का स्तर पता है,उस स्तर को उन्नत बनाने का उनमें जुनून का पूरा-पूरा अहसास है और उनके भीतर एक ऐसे समाज को गढ़ने की परिकल्पना है,जहां संसाधनों को लेकर वैरभाव की जगह कम से कम हो,बराबरी को लेकर बड़ी छटपटाहट हो और वो इसकी आहट रोज़-रोज़,पल-पल महसूस करते हैं।ठीक वैसे ही,जैसे किसी भी धर्म या मज़हब के नायक को ये ग़ैर-बराबरी,शोषण-दमन परेशान करते थे। कॉमरेड, जब विचारों के स्तर पर ये चीज़ें परेशान करने लगे,तो मानकर चलिएगा कि आप भी उसी साम्यवाद के राही हैं,वर्ना आप साम्यवाद के कर्मकांडी यानी मूर्तिपूजक ही हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)