अजब हैं बिहार के किसान, न आंदोलन करते हैं, न आत्महत्या, बस ट्रेन पकड़ पंजाब निकल लेते हैं

बिहार के लगभग नब्बे परसेंट किसान भूमिहीन हैं, यह अजब बात है. अपनी जमीन नहीं है, लेकिन खेती कर रहे हैं।

New Delhi, Mar 13 : मुम्बई के किसान आंदोलन से याद आ गया, हमारे बिहार में भी किसान हैं. और हमारे वाले जो किसान हैं, वे अद्भुत हैं. वे कमाने के लिए भले ही पंजाब, दिल्ली, बंबई, मद्रास या श्रीनगर चले जायें, मौका मिले तो मिडिल ईस्ट भी घुस जायें, लेकिन आंदोलन के लिए पटना भी नहीं पहुंचते. पटना तभी आते हैं, जब लालू जी फिरी में रैली के लिए बुलाते हैं. अपने मसलों के लिए नहीं.

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अभी घर गया था तो पता चला कि पूरे इलाके में जहां-तहां मकई के भुट्टे से दाना गायब हैं. बड़ी-बड़ी बीज कंपनियों ने हमारे इलाके के भोले-भाले किसानों को हाइब्रीड के नाम पर दोयम दर्जे का बीज देकर ठग लिया. मगर इसका कहीं कोई इलाज नहीं, किसान ब्लॉक में जाकर भुटा दिखा आये, बीडीओ ने देख लिया, अखबार के पांच नंबर पेज पर डेढ़ कॉलम खबर भी छप गयी, बात खत्तम.
इससे पहले किसान जहां-तहां पिछले साल आयी भीषण बाढ़ की वजह से हुए नुकसान का मुआवजा मांगते रहे, डीएम तक ने नोटिस नहीं लिया. थक हार कर लोग जनसेवा एक्सप्रेस में लद कर पंजाब चले गये. खरीफ के सीजन में खाद महंगा हो जाता है, खरीद के सीजन में पैक्स खुलता ही नहीं है. फिर भी कोई परेशानी नहीं.

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राज्य के लगभग नब्बे परसेंट किसान भूमिहीन हैं, यह अजब बात है. अपनी जमीन नहीं है, लेकिन खेती कर रहे हैं, किसान हैं. जमीन भाड़ा पर लेकर चार हजार से लेकर बारह हजार रुपये बीघा रकम चुकाकर खेती करते हैं. सिंचाई की सुविधा नहीं है, खेत तक बिजली नहीं पहुंची है, नहर में ऐन पटवन के वक्त पानी सुखा जाता है. बोरिंग में डीजल फूंक देते हैं, लेकिन सब्सिडी का पैसा नहीं मिलता. बेचने जाते हैं तो पैक्स वाला बोलता है, इतना परसेंट नमी है. पैक्स का रेट फिक्स है. एक किसान ने बताया पैक्स वाले के 125 टका क्विंटल खरचा है. मने बीडीओ से लेकर नेताजी तक को देना है और अपने लिए भी बचाना है. इसलिए वह तेरह क्विंटल तौलता है और बारह क्विंटल लिखता है. पैसा जब मिले.

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फिर भी किसान को गुस्सा नहीं आता है. क्योंकि उसको मालूम है, ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? उसको दिल्ली-पंजाब देखा हुआ है. काम मिलिये जायेगा. वह गुस्साता नहीं है, ट्रेन में लद कर चला जाता है.
इसके बाद भी बिहार सब्जी उगाने में नबंर वन हो गया है. पूरे देश में. मक्का, धान और गेहूं भी ठीक-ठाक उगा रहा है. नालंदा का कोइरी सुपौल जाकर कुसहा से आये बालू पर नेनुआ, कद्दू और परवल उगा रहा है और राज्य का नाम ऊंचा कर रहा है. औरंगाबाद में एक ठो किसान स्ट्राबेरी की खेती करने लगा है. किशनगंज में एक मित्र ड्रेगन फ्रुट उगाते हैं. जब बंगाल और असम में चाय की खेती मार खा रही है, किशनगंज में चाय के किसान मोंछ पर हाथ फेर रहे हैं. फरकिया में जहां चलने के लिए रास्ता नहीं है, किसान घुसकर मकई उगाता है और रेलवे पटरी पर ट्रैक्टर दौड़ाकर उपज खगड़िया ले आता है, स्टेशन पर चौंक देता है.
आरा-सासाराम-रोहतास का किसान धान उगाकर यूपी-हरियाणा और पंजाब के राइस मिल वालों को बेच रहा है. रीगा चीनी मिल बंद होने की खबर उड़ी तो सीतामढ़ी के गन्ना किसानों ने ईख को ट्रैक्टर पर लादा और नेपाल के चीनी मिल में पहुंचा आये. नालंदा के नीतीश ने एक हेक्टेयर में 72.9 टन आलू उगा लिया तो सुमंत ने 22.4 टन धान. कोसी के जो इलाके वाटर लॉगिंग के कारण साल भर भरे रहते थे, वहां अब किसान मखाना उगाकर बेच रहे हैं.

सब करते हैं, लेकिन आंदोलन नहीं करते. हरा-पीला-नारंगी-लाल किसी रंग का आंदोलन नहीं करते. उनकी भी एड़ियां फटी हैं, मगर किसी को दिखाते नहीं. कोई देखने वाला भी नहीं है. कोई समझने वाला भी नहीं है. जबकि सौ साल पहले यहीं गांधी बाबा ने चंपारण में किसान आंदोलन किया था, बाद में सहजानंद सरस्वती ने आंदोलन किया. उसके बाद से आंदोलन नहीं के बराबर हुआ. अब सरकार चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मना रही है. आयोजन में कह रही है कि घबराइये मत, भूमि सुधार होगा. मगर राजा को मालूम कहां, यहां के किसान बिल्कुल नहीं घबराते.
ये बैंक से लोन भी नहीं मांगते, बीमा भी नहीं कराते, मिट्टी की जांच भी नहीं कराते. न आंदोलन करते हैं, न आत्महत्या. कैसे हैं हमारे राज्य के किसान?

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)