उपचुनाव की महज तीन सीटों पर आखिर इतना शोर क्यों ?

उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनाव ने लखनऊ और पटना से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मचा दिया।

New Delhi, Mar 19 : पूर्वोत्तर के तीन राज्यों का जश्न अभी थमा भी नहीं था कि उत्तर भारत की तीन सीटों ने बीजेपी में मातम बरपा कर दिया। उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनाव ने लखनऊ और पटना से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मचा दिया। खासकर उत्तर प्रदेश में तो मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की जमीन खिसक गई। अब हार के कारण गिने जा रहे हैं। दलीलें गढ़ी जा रही हैं। ठीकरे फोड़े जा रहे हैं। बाहरी उम्मीदवार, कार्यकर्ताओं की नाराजगी, गुटबाजी, अति आत्मविास वगैरह-वगैरह। यक्ष प्रश्न यही है कि क्या बीजेपी का मोदी मैजिक खत्म हो रहा है? या मोदी और शाह की गैर-मौजूदगी के कारण ही उपचुनाव हाथ से फिसल गए?

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ऐसा है तो क्या बीजेपी का बेड़ा पार लगाने का सारा दारोमदार केवल मोदी और शाह पर ही है? प्रश्न यह भी है कि दो तिहाई बहुमत वाली मोदी सरकार के लिए ये तीन सीटें क्या इतनी महत्त्वपूर्ण हैं कि पूरी राजनीति में भूचाल आ जाए? अगले साल सत्ता में फिर वापसी को लेकर खलबली मच जाए? या विपक्ष इतना गद्गद् हो जाए कि इन तीन सीटों के बूते 2019 फतह कर लेने का सपना देखने लगे? उपचुनाव की महज तीन सीटों पर आखिर इतना शोर क्यों? दरअसल, यह शोर उत्तर प्रदेश की दो सीटों को लेकर ज्यादा है-गोरखपुर और फूलपुर। एक मुख्यमंत्री की सीट थी, और दूसरी उपमुख्यमंत्री की। फूलपुर तो बीजेपी की झोली में 2014 में पहली बार आई थी, लेकिन गोरखपुर उसकी परंपरागत सीट थी। खुद योगी आदित्यनाथ इस सीट से लगातार पांच लोक सभा चुनाव जीत चुके हैं।

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इसे गोरक्षनाथ मठ की सीट माना जाता रहा है। योगी से पहले उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ और उनसे पहले महंत दिग्विजय नाथ इस सीट पर परचम लहराते रहे हैं। अब तो योगी पार्टी के चुनाव जिताऊ नेता भी हैं, और उस प्रदेश के मुखिया भी, जो लोक सभा की राह दिखाता है। ऐसे में जब 2019 सामने है, तो गोरखपुर की एक हार से अर्थ बदल जाते हैं। इसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बयान से भी समझा जा सकता है। उन्होंने कहा-परिणाम चौंकाने वाले हैं। हम खाई में गिरने से पहले ही संभल गए।यूपी में राजनीतिक परिस्थिति एसपी-बीएसपी गठजोड़ के बाद बदली। लेकिन बिहार में तो राजनीतिक परिस्थिति एनडीए के अनुकूल थी। उपचुनाव से पहले कांग्रेस में बड़ी टूट भी हुई। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और कई पार्षद जेडीयू में आ गए थे। इसके बावजूद बिहार में बीजेपी का अररिया लोक सभा चुनाव हार जाना चौंकाता है। बीजेपी और जेडीयू की मिली-जुली ताकत के सामने लालू प्रसाद की गैरमौजूदगी वाली आरजेडी का जीत जाना एनडीए के लिए चिंता का सबब है। अगर इस चुनाव में शरद यादव और जीतन राम मांझी कोई फैक्टर था, तो क्या बीजेपी ने इस पर मनन नहीं किया।विपक्ष इसीलिए बल्लियों उछल रहा है।

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बिहार में जीत बनाए रखने के साथ ही बीजेपी विरोधी विपक्ष ने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के घर में सेंध लगा दी है। अचानक ही उसे 2019 करीब दिखने लगा है। उसके पास इसका एक नया सूत्र है। गठबंधन का सूत्र। ढाई दशक पुरानी दुश्मनी भुला कर उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी ने हाथ मिला लिया। प्रयोग सफल रहा। इसके बहुत सारे जातीय समीकरण हैं। मोदी मैजिक से निपटने के लिए धर्म-संप्रदाय और अगड़ी-पिछड़ी भावनाओं का गणित है। सत्ता विरोधी रु झान है। अब सवाल उठ रहा है कि क्या मोदी मैजिक खत्म हो रहा है? जिसने पूर्व से लेकर पूर्वोत्तर और उत्तर से लेकर दक्षिण तक बीजेपी के असंभव को संभव कर दिखाया, जो 2014 के बाद से लगातार देश के सिर चढ़ कर बोल रहा है, जो देश के करीब 70 प्रतिशत हिस्से तक फैल गया, क्या 2019 से पहले ही वह चुक जाएगा? ऐसा मान लेना जल्दबाजी होगी।महज तीन सीटों के नतीजों पर 2019 के आम चुनाव को तौलना शायद विपक्ष का अति उत्साह ही माना जाएगा। हां, बीजेपी की यह हार विपक्ष को एक होने के लिए उत्साहित कर सकती है। अगले चुनाव में उनका परिणाम भी बेहतर हो सकता है। लेकिन मोदी-शाह की पार्टी को समेट देना, शायद अभी दूर की कौड़ी है। दलील के तौर पर पूर्वोत्तर के तीन राज्य ही काफी हैं। अगर बीजेपी अपने पुराने गढ़ों में थोड़ा बहुत पिछड़ भी जाती है, तो उसके नये किले इसकी भरपाई कर देंगे। फिर भी, जिस तरह उपचुनाव के नतीजों ने पार्टी में ही असंतोष के सुरों को हवा दी है, इस हार पर मंथन तो जरूरी हैऊमुखर नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने उत्तर प्रदेश में हार के बाद सीधे प्रदेश के मुखिया पर हमला बोला है। बागी तेवरों वाले शत्रुघ्न सिन्हा ने भी हार पर तंज कसा है। कई सांसदों ने पार्टी को संभल जाने की चेतावनी दी है। उसके सहयोगी संगठनों संघ, विहिप और बजरंग दल ने उसे चेताया है। कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का आरोप लगाया है। सबूत के तौर पर उत्तर प्रदेश की दोनों सीटों का मतदान प्रतिशत पेश किया जा रहा है। कार्यकर्ता घरों से बाहर नहीं निकले। परिणाम सामने है। इसके अलावा, एनडीए के असंतुष्ट सहयोगियों में शिवसेना का प्रहार तेज हो गया है। टीडीपी ने साथ छोड़ दिया है। वाईएसआर अब सरकार के खिलाफ अविास प्रस्ताव ला रही है यानी अचानक ही देश की सियासत उलट-पुलट हो उठी है। राजनीति का रु ख बदलने लगा है। शायद इसके पीछे 2019 में अपने अपने हित साधने की कवायद ज्यादा हो, बीजेपी का आधार दरकने की वजह कम। लेकिन विरोध जमीन पर तो उतरता दिख ही रहा है। 2019 से पहले जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, अब सबकी नजर उस पर है। इनमें कर्नाटक, केरल जैसे राज्य भी शामिल हैं, जहां कांग्रेस और कम्युनिस्ट सरकारें हैं। उसके बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी चुनाव होने हैं, जहां बीजेपी की सरकारें हैं। आंध्र और तेलंगाना में भी चुनाव होने हैं, जहां एनडीए के खिलाफ माहौल बनाने का खेल शुरू हो चुका है।टीडीपी प्रमुख चंद्र बाबू नायडू ने चार साल केंद्र की सत्ता में रहने के बाद एनडीए से नाता तोड़ लिया है।

मोदी सरकार में पहली बार ऐसा हुआ है। सहयोगियों के इस मोहभंग से सवाल उठने लाजिम हैं। हालांकि, एनडीए का कुनबा बढ़ रहा है। त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय इसकी ताजा मिसाल हैं। टीडीपी के साथ छोड़ने के बाद शिवसेना के प्रति भी बीजेपी का रवैया बदला है। अविास प्रस्ताव की हलचल के बाद दोनों पार्टयिों ने बंद कमरे में लंबी बात की है।बदले माहौल में बीजेपी की नजर जितनी घर पर है, उतनी ही बाहर भी है। एक तरफ सोनिया गांधी की डिनर पॉलिटिक्स है, तो दूसरी तरफ उप्र में एसपी और बीएसपी की महत्त्वाकांक्षा देश में तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट में बदल सकती है। अगर तीसरा मोर्चा बनता है, और कांग्रेस अलग-थलग पड़ जाती है, तो 2019 में बीजेपी का लक्ष्य आसान हो जाएगा।2019 के लिए फिलहाल विपक्ष एकजुट नहीं है। लेकिन बीजेपी का एजेंडा भी सेट नहीं हुआ है। सवाल है कि क्या विकास का मुद्दा चलेगा? क्योंकि बेरोजगारी का सवाल ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। ऐसे में राजनीति घूम फिर कर अयोध्या जैसे मुद्दे पर लौट आती है। मगर क्या बीजेपी इसे एनडीए के एजेंडे में रख पाएगी? ऐसी कोशिश सहयोगियों को उससे दूर कर सकती है यानी 2019 का सारा दारोमदार अब नये माहौल में अमित शाह की नई रणनीति और प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव अभियान में खुद उतरने पर टिका है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)