लोकपाल का भी वही हस्र हो सकता है जो सूचना आयोगों का हो रहा है- Prabhat Dabral

देश भर में आईएएस या आईपीएस का शायद ही कोई अधिकारी ऐसा होगा जो रिटायरमेंट आते आते सूचना आयोगों में घुसने की जुगत में न लग जा रहा हो।

New Delhi, Mar 24 : अण्णा एक बार फिर अनशन पर हैं – इस बार लोकायुक्त/ लोकपाल के गठन को लेकर. केंद्र और कई राज्यों की सरकारों ने बार बार वादा करने के बावजूद लोकपालों की नियुक्ति नहीं की है. अब जबकि अन्ना ने आंदोलन छेड़ दिया है और चुनाव सर पर हैं तो संभव है कुछ सरकारें आनन फानन में लोकपाल/लोकायुक्त कानून बनाकर कागज़ी खानपूरी कर लें. अगर ऐसा हुआ तो लोकपाल भी वैसा ही आधा अधूरा और अधकचरा बना दिया जायेगा जैसा सूचना आयोगों को बना दिया गया है.

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चार साल तक राज्य सूचना आयुक्त और लगभग एक साल प्रभारी मुख्य सूचना आयुक्त के रूप में कार्य करने के अपने अनुभव के आधार पर मेरा मानना है कि ये कानून आज़ादी के बाद लागू किया गया सबसे ज़्यादा जनहितकारी कानून ज़रूर है लेकिन इसमें जानबूझ कर इतने छिद्र छोड़ दिए गए हैं कि ये अपना उद्देश्य उस सीमा तक प्राप्त नहीं कर पा रहा है जितनी इससे अपेक्षा की जा रही थी. भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों की दुरभिसंधि ने सभ्य समाज के लम्बे आंदोलन के बाद प्राप्त इस कानून को भली प्रकार से लागू होने ही नहीं दिया. सूचना आयोगों की नकेल अभी भी सरकारों के ही पास है.

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सबसे बड़ी और सबसे बुरी बात तो ये है कि केंद्र और राज्यों के सूचना आयोग रिटायर्ड नौकरशाहों की ऐशगाह बन गए हैं. समूचे देश में एक भी सूचना आयोग ऐसा नहीं है जहाँ का मुख्य सूचना आयुक्त रिटायर्ड नौकरशाह न हो. सूचना आयुक्तों की बात करैं तो देश के विभिन्न आयोगों में नब्बे प्रतिशत से अधिक सूचना आयुक्त रिटायर्ड नौकरशाह हैं. केंद्रीय सूचना आयोग साल में एक बार आयुक्तों का एक सम्मलेन करता है. वहां जाएँ तो आपको लगेगा कि आप रिटायर्ड ऑफिसर्स के किसी क्लब में आ गए हैं.
देश भर में आईएएस या आईपीएस का शायद ही कोई अधिकारी ऐसा होगा जो रिटायरमेंट आते आते सूचना आयोगों में घुसने की जुगत में न लग जा रहा हो. राज्यों के मुख्य सचिव तो मुख्य सूचना आयुक्त के पद को अपना पोस्ट रिटायरमेंट बेनिफिट मान कर चलते हैं. रिटायरमेंट के बाद पांच साल तक झंडा-डंडा, घोडा -गाड़ी की व्यवस्था बनी रहे इसलिए वे मुख्यमंत्रियों की जी भरकर सेवा करते हैं, उनके उलटे सीधे काम करते हैं – वो सब करते हैं जिसे रोकने के लिए ये कानून बनाया गया था.

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सूचना कानून बनाया गया था ये सोचकर कि प्रशासन में गोपनीयता के अंधकार को हटाकर पारदर्शिता का उजाला लाया जाये ताकि गोपनीयता के अंधकार में पल रहे भ्रष्टाचार से आमजन को मुक्ति मिल सके. विडम्बना देखिये कि सारी ज़िन्दगी गोपनीयता के अंधकार में मौज़ मारने वालों के हाथों में ही पारदर्शिता लागू करने की ज़िम्मेदारी सौंप दी जा रही है. सारे नौकरशाह भ्रष्ट नहीं हैं, सारे नेता भी भ्रष्ट नहीं होते- लेकिन देश की बागडोर इन्ही के हाथों में तो है और अगर प्रशासन में कहीं कुछ गलत है तो इन्ही के कारण तो है. फिर इनपर नकेल रखने वाली संस्थाएं इन्ही को क्यों सौंपी जा रही हैं. ऐसा ही करना है तो न्यायपालिका भी इन्ही को सौंप दो.
अब जबकि अन्ना के कारण लोकपाल पर नए सिरे से बहस चलेगी तो इन बिंदुओं को भी ध्यान में रखना होगा…. नहीं तो लोकपाल का भी वही हस्र हो सकता है जो सूचना आयोगों का हो रहा है…

(वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)