मातम पर तो सियासत नहीं करते

मृतक के परिजनों ने जो आरोप लगाए और विपक्ष ने जो आरोप केंद्र सरकार पर लगाए-दोनों में बड़ा फर्क है।

New Delhi, Mar 25 : मोसुल की मौतों पर मातम मनाने का वक्त है। इसलिए भी कि आतंकी दरिंदों ने 39 भारतीयों की परदेस में सामूहिक हत्या कर दी, और इसलिए भी कि अब देश में इन मौतों पर राजनीति हो रही है। विपक्ष ने सरकार पर देश की भावनाओं के साथ खेलने का आरोप लगाया है, तो सरकार ने विपक्ष पर संवेदनहीन होने का। इसमें उन परिवारों की पीड़ा अनदेखी-सी महसूस हो रही है, जो चार साल तक हर पल जिंदगी और मौत का दंश एक साथ झेलते रहे।समय बीतने और लापता भारतीयों से संपर्क नहीं होने के बाद भी मामले में विशेष प्रगति नहीं हुई। पिछले साल जब मोसुल से आतंकियों का कब्जा हटा तो केंद्रीय मंत्री मोसुल गए और आखिरकार, इराकी सरकार के सहयोग और राडार की मदद से एक पहाड़ी टीले के नीचे इन लाशों को ढूंढ़ निकाला गया।

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लाशों की गिनती और बुनियादी पहचान से इनके भारतीय होने की लगभग पुष्टि उसी समय हो गई थी। लेकिन संसद में इस दुखद घटना की पुष्टि भी हंगामों और राजनीतिक बवाल से नहीं बच सकी। पूरे मामले में मृतक के परिजनों की भी अपनी भावनाएं रहीं और उस शख्स की भी, जिसने इस घटना के चश्मदीद होने का दावा किया था और जिसके दावे को सरकार नकारती रही थी। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने हर किसी को जवाब देने की कोशिश की ताकि किसी के भी आरोपों की जद में वे स्वयं या उनकी कोशिश, जो लापता 39 भारतीयों को खोजने की थी, न आ सकें। घटना के चश्मदीद हरजीत मसीह के साथ बुरा बर्ताव भारत में हुआ है। यह इस हद तक हुआ है कि हरजीत कह रहा है कि अच्छा होता अगर वह भी उस नरसंहार में मारा गया होता, गोली खाकर बच नहीं निकला होता। एक व्यक्ति झूठ बोल सकता है। कोई आदतन बोलता है, कोई फायदे के लिए बोलता है, और कोई डींग हांकने के लिए बोलता है। मगर झूठ से भी सच पकड़ने की कोशिश सरकार करती है, और इसलिए ऐसे व्यक्ति का भी महत्त्व होता है। 39 लापता भारतीयों को खोजने में अगर इस शख्स का इस्तेमाल सलीके से नहीं किया गया तो यह बहुत बड़ी गलती है। बारंबार मोसुल में नरसंहार की घटना की पुष्टि नहीं करना, यह कहते रहना कि वे जिंदा हो सकते हैं। साथ में यह कहना कि जब तक सबूत नहीं मिलेंगे, घटना की पुष्टि सरकार नहीं करेगी। ये ऐसी बातें थीं जो निराश परिजनों में आशा भर रही थीं। इन बातों में जो निराशा वाली बात है, और जिसे सुषमा स्वराज आज जोर देकर बता रही हैं, उस निराशा की बात को पहले से ही निराश परिजन क्यों स्वीकार करें।

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निराश व्यक्ति तो उम्मीद की ही बातों को स्वीकार करता है। जब विदेश मंत्री मृत परिजनों के घर जाकर दिलासा दिलाती हैं, तो उम्मीद ही करेंगे परिजन या कि दूसरे विकल्प पर जाएंगे?फिर भी बीतते समय के साथ-साथ उम्मीद भी खत्म होती जा रही थी। पिछले साल जब केंद्रीय मंत्री मोसुल गए और लाशों का सच पता चला, उसके बाद से भी सरकार तब तक चुप्पी साधे रही जब तक कि डीएनए का मिलान नहीं हो गया। तकनीकी रूप से सरकार बिल्कुल सही है। मगर सवाल मानवीय व्यवहार का है। मृतक के परिजनों ने जो आरोप लगाए और विपक्ष ने जो आरोप केंद्र सरकार पर लगाए-दोनों में बड़ा फर्क है। इस फर्क को भी समझने की जरूरत है। मृतक के परिवार भावनात्मक रूप से तो आहत हुए ही, इस रूप में भी आहत हुए कि मौत नहीं मानने की वजह से उन्हें कई तरह की दिक्कतों का भी सामना करना पड़ा। आप सोच सकते हैं कि लाइफ इन्श्योरेंस कम्पनियां क्या मृत्यु की पुष्टि के बिना आश्रितों को कोई मुआवजा देती हैं? खुद सरकार तो तब तक किसी मुआवजे का ऐलान नहीं करेगी, जब तक कि मौत की पुष्टि न हो जाए? परिजनों को इस वजह से जो कष्ट हुआ, उसे तो वे व्यक्त करेंगे ही। हालांकि वे ऐसे मौके पर ऐसी बातें नहीं कह पाते। उनके शब्दों में छिपी भावना समझने की जरूरत होती है। वे बस सरकार से रूठे या नाराज होते दिखना चाहते हैं ताकि ऐसी दिक्कतों का कोई रास्ता निकल सके।एक बात और महत्त्वपूर्ण है। जब 2017 में आईएस की पकड़ मोसुल में कमजोर हुई और वे भागने को मजबूर हुए, उससे पहले तक यहां लापता भारतीयों के बारे में कुछ भी पता लगा पाना भारत सरकार के लिए मुश्किल था।

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जब इराक में संवाद कर पाने वाली सरकार का प्रभाव बरकरार हुआ, तभी इस दिशा में सरकार काम कर सकी। अगस्त में जनरल वीके सिंह का जाना, टीले की खुदाई, अवशेषों के साथ मिली सामग्री की जांच, भारत में मृत परिजनों के डीएनए सैम्पल लेना, उसे इराक भेजना और मिलान कराना सारी प्रक्रियाएं तभी सम्भव हो सकीं।विपक्ष ने जब केंद्र सरकार पर आरोप लगाए तो उन्होंने अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को ध्यान में रखने की जरूरत नहीं समझी। उन्होंने इस बात की भी परवाह नहीं की कि केंद्र सरकार को लापता भारतीयों की खोज में किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ा होगा। दूसरी पार्टयिों को भले ही न पता हो, लेकिन लंबे समय से सत्ता में रही कांग्रेस को कम से कम इन दिक्कतों के बारे में बेहतर तरीके से पता है।पहले संसद को जानकारी दी जाए या परिजनों को उनके आश्रितों के मरने की जानकारी मिले, यह बात बहस का विषय जरूर है। सुषमा स्वराज ने संसद में जानकारी देने को अपना धर्म बताया। यह किसी हद तक सही है। मगर चूंकि यह लंबे समय से इंतजार का मामला था, परिजनों की उम्मीद का मामला था, उन्हें दिए गए भरोसे का सवाल था, इसलिए उनकी इच्छा का सम्मान रखना जरूरी था। वैसे भी स्वाभाविक रूप से मृतक के परिजनों को जानकारी पहले प्राप्त करने का अधिकार होता है।सवाल उठता है कि क्या विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद का सत्र चलते हुए जो सबसे पहले संसद को जानकारी देने का धर्म बताया, क्या वह गलत है?

इसका जवाब परंपरा से दिया जा सकता है, कोई थंब रूल नहीं है। नीतिगत मामलों में सबसे पहले संसद को बताना जरूर राजनीतिक धर्म माना गया है, लेकिन यह मामला नीतिगत था या नहीं; इस बात पर भी विचार करना होगा।लापता भारतीयों की खोज के मामले में जो प्रश्न उठाए गए हैं, वे प्रश्न अपनी जगह जायज होते हुए भी भारत सरकार के प्रयास को कोई खारिज नहीं कर सकता। इसी तरह से सरकार अगर अपने प्रयासों का जिक्र करती है, तो इन उठते प्रश्नों को भी सरकार खारिज नहीं कर सकती। दोनों पक्षों को अपनी-अपनी बात रखते हुए एक दूसरे की भावनाओं का ख्याल रखना चाहिए। फिर भी जिम्मेदारी सरकार से अधिक अपेक्षित है।सत्ता पक्ष और विपक्ष ने एक काम अगर कर दिया होता तो शायद वह मृतक के परिजनों के लिए भी और मृत आत्माओं के लिए भी सुकून वाली बात होती। अगर संसद में पक्ष-विपक्ष ने मिलकर इस सामूहिक नरसंहार के लिए आईएस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया होता तो आज देश और दुनिया में माहौल कुछ और होता।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)