‘हिंदुत्व : हम अपने सवालों की बजाय, उनके ही सवालों पर कुर्बान हुए जा रहे हैं’

हमारी ही तरफ़ से सवाल करने का दावा ज़रूर करते रहेंगे, मगर करार दिए गए हमारे ही सवालों के ज़रिए, तिजोरियाँ उनकी खनकती रहेंगी।

New Delhi, Mar 30 : अतीत मिल का पत्थर है, जहाँ से आदमी की तरक्की की पैमाइश होती है, इसलिए तारीख़ को भूलना ठीक नहीं। मगर जब हम तारीख के सम्मोहन से चिपक जाते हैं, तब हमारा कोई भविष्य भी नहीं होता। क्योंकि बिना गति के प्रगति कहाँ ? गति वर्तमान होती है और प्रगति हमारा भविष्य ! हम जैसे ही प्रगति पाने की खातिर गति चाहते हैं, तो इस चाहत का पहला सामना सवालों से होता है।

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मगर इस समय सवाल उठाने वालों पर ही बड़ा सवाल उठने लगा है. क्योंकि सवाल का बाज़ार है, इस बाज़ार का बाज़ीगर है और हम नागरिक मूर्खों की जमात में शामिल कर दिये गये जज़्बाती वोट-भीड़ हैं। वह बाज़ीगर कभी समाजवादी, कभी लोहियावादी, कभी गांधीवादी, कभी संस्कृतिवादी-राष्ट्रवादी , तो कभी ये वादी, कभी वो वादी बनकर आ जाता है।

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हम अपने सवालों की बजाय, उनके ही सवालों पर कुर्बान हुए जा रहे हैं। यक़ीन मानिए, आज हिन्दुत्व के सवालों की खरीद फरोख्त हो रही है, कल इस्लाम की होगी। Politics-of-natureवे हमारी ही तरफ़ से सवाल करने का दावा ज़रूर करते रहेंगे, मगर करार दिए गए हमारे ही सवालों के ज़रिए, तिजोरियाँ उनकी खनकती रहेंगी। हमारे सवाल वो नहीं, जो “वो” पूछते हैं।

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हमारे मौलिक सवाल सामाजिक राजनीतिक समन्वय के हैं, रोज़गार और तरक्की के हैं, हमारे युवाओं की आकांक्षाओं की उड़ान के हैं, शोध और अनुसंधान के हैं। इन्ही सवालों से जूझते हुए कोई राष्ट्र और समाज मज़बूत बनता है।वर्ना कल भी अस्तित्व ढूंढ रहे थे, आज भी उस अस्तित्व को अतीत में तलाश रहे हैं और यही सब चलता रहा तो आने वाला कल अपने कंधों पर एक मरे हुए समाज और राष्ट्र की लाश ढोते हुए फिर भी अल्लामा इक़बाल के शेर के आधे अधूरे हिस्से को दोहराते और झूठे गर्व से अपना नथुना फुलाते झूमते गाते मिलेंगे कि…… कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी !!!

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)