बनारस के कच्चापन ही बनारस की पहचान है

बनारस : यहां बुलाने की परंपरा है। पंडे बुलाते हैं। नाऊ बुलाते हैं। मल्लाह बुलाते हैं। किसी-किसी को ‘मां गंगा भी बुलाती हैं’।

New Delhi, May 04 : खलिहर समाज घाट पर जुटता है सबेरे-सबेरे। सूरज देवता आते नहीं उससे पहले समाज आ जाता है। अलसाया हुआ। देह तोड़ता। पसीने से गंधाते अल्हड़ बनारसी आंख तब खोलते हैं जब घाट की तरावट झम्म से आकर बदन में झुरझुरी पैदा कर देती है। अब पैंट बुशर्ट पहन के आने लगे हैं। पहले छींटदार या चेक वाला हवादार गमछा होता था। तरी को आर-पार करते। मल्लाह नाव पर चढ़े चिल्लाते हैं – “पार जाइएगा भइया…आइए चलिए पार चलें…ओह पार नहाइए उधर पानी साफ है। चलिए मालिक…ज्यादा नहीं है 20 रुपया सवारी।”

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दशाश्वमेध घाट को जो ‘दसासुमेर’ कहे समझ लीजिए खांटी बनारसी है। उससे पंगा मत लीजिएगा। यहां बुलाने की परंपरा है। पंडे बुलाते हैं। नाऊ बुलाते हैं। Banarasमल्लाह बुलाते हैं। किसी-किसी को ‘मां गंगा भी बुलाती हैं’। आम बनारसी इन्हें देख कर अनसुना कर देता है। बाहर वाला भकुआ देखता है। और फिर किसी न किसी चक्कर में फंस ही जाता है। लेकिन यहां फंसना मोक्ष है। किस तरह से है ये बिना यहां आए आपको समझ नहीं आएगा।

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तो भोर-ए-बनारस है। सूरज सिंदूर आसमान में रच रहा है। कुत्ते मुंह गोत के पटिया के नीचे, भिखारियों के बीच में, या फिर पंडों की चौकियों के नीचे घुसुर (घुस) के सो रहे हैं। Banaras1सारी रात जब बनारस जागता है तो इसके साथ ये भी जागते हैं। मैं आज तक नहीं समझ सका कि जो बनारस रात भर जागता है वो सोता कब है। क्योंकि वही किरदार दिन में भी पान गुलाते खिखियाते दीखते हैं।

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हाल फिलहाल बनारस बदल रहा है। जैसा बनारस हमारे बचपन के दिनों में था अब वैसा नहीं है, इसे बड़े करीने से सजाने की कोशिश हो रही है। Banaras2घाट जवान हो रहे हैं, जो कुछ भी कच्चा था अब पक्के में बदल रहा है। जैसे सुदामा की मड़ई रातों रात महल बन गई थी। पर महल में धूर नहीं होती। बनारस बिना धूर के मजा नहीं देता। बनारस के कच्चापन ही बनारस की पहचान है। कच्चे बनारसी की तरह। एकदम रॉ। खालिस।

(वरिष्ठ पत्रकार राकेश पाठक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)