बस के साथ सरकार और मीडिया की साख भी जल गई !

विभाग के सचिव कह रहे थे की किसी के मरने की सूचना नहीं है और मंत्री 27 यात्रियों की मौत हुई बता रहे थे। इससे सरकार और नौकरशाही के बीच के रिश्ते को समझा जा सकता है।

New Delhi, May 05 : 3 मई को मोतिहारी में मुजफ्फरपुर से दिल्ली जा रही बस क्या जली उसके साथ -साथ बिहार सरकार और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की साख भी स्वाहा हो गई। सरकार और मीडिया ने 27 यात्रियों को मार दिया। मुख्यमंत्री ने सार्वजानिक समारोह में मौन रखकर मृतकों को श्रद्धांजलि भी दे दी। मृतकों के परिजनों के लिए 4 -4 लाख का मुआवजा भी घोषित कर दिया गया । बाद में स्पष्ट हुआ कि किसी की मौत नहीं हुई है। लेकिन तबतक देर हो चुकी थी। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक ने इस दुर्घटना में मृत लोगों के प्रति शोक जता दिया । मोतिहारी के डीएम रमण कुमार ने रात में स्पष्ट किया कि दुर्घटना में किसी की मृत्यु नहीं हुई है। मुजफ्फरपुर पुलिस जोन के IG सुनील कुमार के मुताबिक ‘बस को खींचकर बाहर निकाला गया लेकिन उसके अंदर कोई शव नहीं मिला। हम राख को फरेंसिक लैब में भेजेंगे और जानने की कोशिश करेंगे कि क्या हादसे में किसी की मौत हुई है।’

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सबसे पहले न्यूज़ चैनलों पर बस के दुर्घटनाग्रस्त होकर गड्ढे में गिरने और उसमें आग लगने की खबर चली। फिर यात्रियों के जल कर मरने की खबर चली। चैनलों के स्क्रीन पर मृतकों की संख्या बढ़ाने लगी। पहले 3 तीन हुआ ,फिर 7 फिर 15 होते यह संख्या 27 तक पहुँचा दी गई। बिना किसी पुष्टि के सुनी सुनाई बातों पर संख्या बढ़ती गई। आपदा प्रबंधन मंत्री दिनेशचंद्र यादव ने भी चैनेलों को दिए फोनो में मृतकों की संख्या 27 बता दी। यह पहली आधिकारिक पुष्टि थी। मंत्री को 27 लोगों के मरने की खबर कहाँ से मिली यह तो वही जाने, लेकिन उनकी भद्द पिट गई। जब एक चैनल पर खबर चल गई तो फिर सारे पर यह चलनी ही थी।

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घटनास्थल पर पहुंचे जिन संवाददाताओं ने अपने ऑफिस को किसी के नहीं मरने या मृतकों की संख्या कम बताई उन्हें जम कर डांट खानी पड़ी। कुछ को तो रिपोर्टिंग के अयोग्य घोषित कर दिया गया। यह हाल है मीडिया का !
मुख्यमंत्री और मंत्री ने भले ही यात्रियों को मृत घोषित कर श्रद्धांजलि दे दी लेकिन किसी अधिकारी ने कभी मृतकों के बारे में मुंह नहीं खोला। मजेदार बात यह रही कि आपदा मंत्री ने मृतकों की संख्या भले ही 27 बता दी लेकिन आपदा प्रबंधन के प्रधान सचिव प्रत्यय अमृत ने किसी यात्री के मरने की सूचना से अनभिज्ञता जाहिर की। विभाग के सचिव कह रहे थे की किसी के मरने की सूचना नहीं है और मंत्री 27 यात्रियों की मौत हुई बता रहे थे। इससे सरकार और नौकरशाही के बीच के रिश्ते को समझा जा सकता है। पता नहीं सीएम को किसने सूचना दी ? शायद चैनलों की खबर देख कर उनके अधिकारियों ने उन्हें बताया हो।

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सवाल यह है कि आखिर इतनी आतुरता क्यों ? सुनी सुनाई बातों के बजाय अगर आधे घंटे बाद ही पुष्ट खबर दिखाई जाये तो क्या बिगड़ जायेगा ? इससे चैनलों की विश्वसनीयता तो खंडित नहीं होगी ? कहा भी गया है -‘हड़बड़ का काम शैतान का’ या ‘हड़बड़ में गड़बड़’ होता है। हमें इसका ध्यान रखना होगा कि एक्सक्लूसिव और सबसे पहले दिखाने के चक्कर में कहीं हमारी साख न ख़त्म हो जाये ?
जरा उन परिवारों का सोचें जिनके परिजन उस बर्निग बस में यात्रा कर रहे थे। चैनलों पर खबर देखकर उनके दिलों पर क्या गुजर रही होगी ? जलते बस के विज़ुअल के साथ -साथ उनका मन भी जल रहा होगा। आप कहीं यात्रा पर हो और घरवालों को सूचना मिले कि दुर्घटना में आपकी मौत हो गई तो कैसा महसूस होगा ! हम चैनलों के लोगों को क्या यह नहीं सोचना चाहिये ? अब के दौर में हमने ” डाउट आउट ” का पत्रकारिता का पुराना फार्मूला शायद भुला दिया है। इसका अर्थ यह है कि जिस तथ्य के बारे में जरा भी ‘डाउट’ यानी शंका हो उसे खबर से ‘आउट’ यानी बाहर कर देना चाहिए। इसी से जुड़ा दूसरा फार्मूला है -खबर छूट जाये वह ठीक पर गलत खबर न चले। अखबारों में छपी ख़बरों या चैनलों में दिखाई गई ख़बरों पर लोगों का इसीलिए भरोस है कि हम सच दिखाते हैं। जिस दिन यह सच हमसे दूर हो जायेगा , मीडिया की ताकत समाप्त हो जायेगी। सच ही हमारी शक्ति है। ‘बर्निग बस’ जैसी घटनाएं हमें सावधान करती हैं।

हालांकि यह पहली घटना नहीं है। शायद आखिरी भी नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व पटना के गाँधी सेतु से एक बस के गंगा नदी में गिरने की खबर चैनलों पर चली थी। उसमे एक चैनल ने 40 लोगों के मरने की खबर चला दी थी। उसमे कोई नहीं मरा था। नदी में बस नहीं ट्रक गिरा था। लेकिन 40 लोगों को मारनेवाला चैनल जरूर मर गया। उस चैनल का नाम लेना जरुरी नहीं है।
3 मई को जैसे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भरी सभा में बिना मरे लोगों को श्रद्धांजलि दे दी , उसी तरह लोकसभा ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जीवित रहते उन्हें श्रद्धांजलि दे दी थी। तब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)