आतंकी को मजबूर बताने वाली ये कौनसी सोच है ?

मतलब दुनिया में बुरे से बुरे आदमी के नज़दीकी लोग उसके लिए ऐसी ही राय रखेंगे, तो फिर प्रफेसर से आतंकी बने रफी के केस में क्या नया है।

New Delhi, May 09 : इस तरह की ख़बर और हेडलाइन के क्या मायने हैं? अगर आप दाऊद के परिवारवालों और दोस्तों से बात करें तो वो भी कहेंगे कि दाऊद भाई, बड़े रहमदिल और मददगार हैं। उनके दोस्त बताएंगे कि कैसे दाऊद भाई ने उन्हें कोकीन का धंधा शुरू करवाया। उनके छोटे लड़के को कैसे दाऊद भाई ने उगाही के काम में सेट करवाया। छोटा शकील का परिवार बताएगा कि दाऊद भाई तो उनके लिए ऊपर वाले से भी बढ़कर हैं।
मतलब दुनिया में बुरे से बुरे आदमी के नज़दीकी लोग उसके लिए ऐसी ही राय रखेंगे, तो फिर प्रफेसर से आतंकी बने रफी के केस में क्या नया है। जिस राज्य में हर आतंकी के जनाजे में हज़ारों लोग शामिल होते हैं वहां एक और आतंकी के बारे में उसके नज़दीकी लोगों की ऐसी राय किस तरह हैरान करने वाली है!

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आतंकी को बेचारा और मजबूर बताने के अलावा इस तरह की स्टोरी के और कोई मायने नहीं हैं। और जब आतंकी को मजबूर बताने लगें, तो आप ये भी साबित कर रहे होते हैं कि हमारी सरकारें ही ज़ालिम हैं। हमारी आर्मी अत्याचारी है। आपके हिसाब से सरकारों को खुद को लोकतांत्रिक दिखाने के लिए क्या करना चाहिए? अगर जिहादी मानसिकता वाला कोई शख्स चाहता है कि उसे कश्मीर में इस्लामी निजाम स्थापित करना है, तो क्या सरकार उसके आगे झुक जाए? उससे क्या कहा जाए ठीक है भाई तुमने पंडितों को तो यहां से भगा दिया चलो हम भी चले जाते हैं। फहरा दो यहां पर इस्लाम का झंडा। हो जाओ पाकिस्तान में शामिल।

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क्या सरकारों को ये कहना चाहिए? अगर सरकार को कश्मीर में ऐसा कहना चाहिए तो बाकी देश में लोग कहेंगे कि अगर मुस्लिम बहुल हिस्से को अलग देश बनना है, तो भारत को भी हिंदू राष्ट्र बनाओ। सुब्रमण्यम स्वामी जैसे कहेंगे (जैसा वो पहले भी कह चुके हैं) कि मुसलमानों से उनके वोटिंग राइट छीन लो। और ये लोग भी कश्मीरी जिहादियों की तरह हथियार उठा लेंगे, तो क्या आप भारत को हिंदू राष्ट्र बना देंगे? नहीं बनाएंगे, क्योंकि देश संविधान से चलता है किसी कौम या समुदाय की सनक से नहीं।
इसलिए कोई प्रफेसर भी ऐसी सनक में अगर हथियार उठा ले, तो उसका गुनाह इसलिए कम नहीं हो जाता क्योंकि वो प्रफेसर रहा है। इसलिए भगवान के लिए ऐसे किसी भी शख्स के नज़दीकी आदमी से बातकर उसे बेचारा और भला बताने की कोशिश न करें। ऐसी मांग करने वाला हर शख्स अगर हथियार उठा ले, तो क्या उसके साथ कोई बातचीत मुमकिन है। अगर आप उसे नहीं मारेंगे, तो वो आपको मार देगा। मगर बजाए ऐसे मुद्दों पर कोई तार्किक बहस करने के मीडिया में एक खास मानसिकता वाला वर्ग ऐसी हर घटना के बाद उससे जुड़े किसी भावुक पहलू को आगेकर एजेंडा बदलने में लग जाता है।

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तभी बुरहान वानी जैसों को हेडमास्टर का बेटा बताया जाता है। मोहम्मद रफी जैसों के प्रफेसर होने का हवाला देकर उन्हें मजबूर बताया जाता है। terrorism1और ऐसा करके हर बार ये साबित करने की कोशिश की जाती है कि आंतकी तो मजबूर और बेचारे हैं, सारा ज़ुल्म इंडियन आर्मी ही कर रही है! बिना ये सोचे जब-जब आप ऐसा करते हैं आप उस जिहादी सोच को तो बढ़ावा देते ही हैं, खुद अपने ही हाथों अपनी आर्मी और सरकार को भी पूरी दुनिया में ज़लील करते हैं। उन्हें नीचा दिखाते हैं।

(पत्रकार नीरज वधवार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)