क्या लेखन को भी हुनर बना के आम लोगों से छीन लेना चाहते हो?

लेखन : लिखता हुआ आदमी चीखता नही है, कूदता नही है, बोलता नही है, मारता नही है, काटता नही है, किसी का बलात्कार नही कर रहा होता है, किसी की हत्या नही कर रहा होता है। 

New Delhi, May 23 : झूठा से झूठा लेखन भी सच्चे मन से और घटिया से घटिया लेखन भी अच्छे मन से लिखा जाता है। इसलिए सब करना, किसी के लिखे को खारिज़ मत करना।
झंडा और तलवार ले घूम रही भीड़ को कलम दे दो, सबसे लिखने कहो। ये लिखने वाले ही एक दिन दुनिया को पुस्तकालय में बदल देंगे। अच्छा ख़राब कैसा भी हो, किसी की गोली या किसी की तलवार से मरने से अच्छा है सस्ते साहित्य के किताबों के ढेर के नीचे दब के मर जाना। तुम्हे अच्छे साहित्य की पड़ी है, मुझे लहू के दरिया को स्याही में बदल जाते हुए देखना है। लिखता हुआ आदमी दुनिया में सबसे अच्छा दृश्य है। लिखता हुआ आदमी चीखता नही है, कूदता नही है, बोलता नही है, मारता नही है, काटता नही है, किसी का बलात्कार नही कर रहा होता है, किसी की हत्या नही कर रहा होता है। लिखता हुआ आदमी तभी सिर्फ लिख रहा होता है।

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इससे अच्छा क्या होगा कि हर आदमी लिखता हुआ दिखे। अच्छा लेखन- बुरा लेखन ये फर्क कैसे तय करते हो? क्या लेखन गणित का हिसाब है? कैसे निकालते हो इतना गलत, इतना अच्छा? क्या रोक लोगे उसे जिसने नही सीखा था लिखने से पहले लिखने का गणित? मत रोको किसी को, सबको लिखने दो। लिखना बस लिखना नही है। मस्तिष्क का अनुशासन है, उसको नियंत्रित रखने का योग है। इसी अभ्यास से दुनिया को कोई तुलसी, बाल्मीकि, व्यास या कोई कबीर मिलेगा। क्या लेखन को भी हुनर बना के आम लोगों से छीन लेना चाहते हो? इसके लिए भी खुलेंगे मठ और गुरुकुल?

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क्या लेखन कोई सीखने की विधा है जिसे फिर कोई द्रोण सिखाएगा और फिर कोई एकलव्य अंगूठा गंवाएगा? नही, लेखन सहज़ विशेषता है हर मानव में। उसे ख़ास बता, आम से छीनो मत। बुरा से बुरा आदमी भी लिखते वक़्क्त अच्छा हो जाता है। बुरे का, अच्छे का, सबका बाहर आना जरुरी है। आदमी के अंदर का विस्फोट बहुत भयावह होता है.. उसे निकलने का रास्ता दो। बुरा लिखने का भी लाभ है कि अंदर की बुराई बाहर आ जाती है, अंदर सुकून मिलता है। अच्छा लिखने का फायदा ये है कि अंदर कुछ और अच्छा भरने की जगह बन जाती है। इसलिए किसी को लिखने से हतोत्साहित मत करो।

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लिखना एक यत्न है, मनुष्यता से ये यत्न, ये अभ्यास मत छीनो। तुम किसी को कूड़ा कह आंख भौं मत सिकोड़ो। जो भी कूड़ा है, उसमें तुम्हारा भी जीवन है। इसी परिवेश का हासिल है वो सब कुछ लिखा हुआ जो तुम्हे कूड़ा दिखा है। तुम्हारे आस पास जो जिंदगी के अनेक ढेर हैं कूड़े बक जिसके दुर्गंध के साथ मन भींगा के तुम जीने को अभिशप्त हो, उससे लाख गुना बेहतर है किताब और रचनाओं का वह कूड़ा जिसमें सृजन की गंध तो है।ये बुरी बात है कि जात, धर्म,मनुष्य के बाद अब लिखा हुआ भी महकने लगा है तुम्हें। नथुनों को थोड़ा कायदा सिखाओ।जय हो।

(नीलोत्पल मृणाल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)