हद से ज़्यादा दमन में पत्रकार एक्टिविस्ट हो जाते हैं
पत्रकारिता कितनी आज़ाद होगी इसका फैसला सरकार करती हैं. ये अलग बात है कि हद से ज़्यादा दमन में पत्रकार एक्टिविस्ट हो जाते हैं।
New Delhi, May 26 : “उड़ता उड़ेंद्र” जैसी घटनाएं बोझिल राजनीतिक दौर को हंसते खिलखिलाते हुए पेश करना भर है. हंसी-मज़ाक में थोड़ी छूट ले ही ली जाती है. चूंकि आजकल नेताओं का हास्यबोध ज़मीन पर रेंग रहा है इसलिए नाम बदल देता हूं. इसे लिखते हुए मुझे पूरी तटस्थता का अहसास होता है. किसी पर भी तंज़ कसते हुए झिझक नहीं लगती. लगता है कि रंगमंच पर खेले जा रहे नाटक को रिपोर्ट कर रहा हूं.
कई लोगों को इन खतों पर तकलीफ भी होती है. वो आपत्ति करते हैं. मुझे मालूम है जिस दिन “पोगो मास्टर” पर लिखूंगा उस दिन एक अलग रुझान वालों को भी परेशानियां होंगी. “झोवैसी जी” वाले भी आहत होने को बेकरार हैं.
पत्रकारिता और सरकार नाम ती संस्थाओं का बड़ा अटपटा नाता होता है. दोनों संविधान से ताकत पाते हैं मगर पत्रकारिता उसका पालन करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती जबकि सरकार उसे पूरी तरह बदल देने में भी सक्षम है. पत्रकारिता कितनी आज़ाद होगी इसका फैसला सरकार करती हैं. ये अलग बात है कि हद से ज़्यादा दमन में पत्रकार एक्टिविस्ट हो जाते हैं लेकिन “शांतिकाल” में सरकार वाकई सरकार हैं. ऐसे रिश्ते के बावजूद पत्रकारिता अगर उसकी आलोचना करे जो उसे नियंत्रित करने की शक्ति रखता हो तो आप समझ सकते हैं कि प्रैक्टिकली ये सब कितना मुश्किल और अजीब सा है.
उदार होना या दिखना पहले फैशन था. नेता उदार दिखने का मौका नहीं छोड़ते थे. अब दिखावे की उदारता भी तिरोहित हो चुकी है. नेता पत्रकारों को ऐसे चैलेंज करते हैं मानो वो उनके प्रतिद्वंद्वी हों. लेकिन सच क्या है? सच ये है कि एकाध अपवाद को छोड़कर आज भी नेता और उनके अनुयायी ताकतवर हैं और पत्रकार अपनी आज़ादी के लिए उनकी मुंहजोई करने को मजबूर हैं. यही संविधान है और इसी का हमें पालन करना है. नेता जी की तारीफ में बने शो हों या उड़ता उड़ेंद्र का खत.. हर कोई उनकी एक टेढ़ी नज़र से उपजे कानून की आग में खाक हो सकता है.