अकसर प्रदूषण की वजह से सुर्खियों में रहने वाला दिल्ली में तो हर पेड़ सिपाही है, फिर बलि क्यों ?
क्या सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करके दिल्ली में पेड़ों के मामले में वही फैसला नहीं सुनाना चाहिए जो उसने तालाबों के मामले में 2011 में सुनाया था।
New Delhi, Jun 27 : दिल्ली जैसे महानगर के लिए तो हर पेड़ एक सिपाही है, पर्यावरण के पक्ष में लड़ने वाला योद्धा है. उस दिल्ली में 16 हजार पेड़ों को काट कर हटा देने का मतलब है 16 हजार सिपाहियों की बेवजह बलि दे देना. और यह बलि दिल्ली में विकसित क्वार्टर और बंगला संस्कृति की वजह से है. एनडीएमसी के इलाके में घूम आइये एक-एक मंत्री का बंगला कई-कई एकड़ों में फैला है. हालांकि इसी वजह से उस इलाके का पर्यावरण भी ठीक है. मगर जिस शहर में लोग एक-एक इंच जमीन हासिल करने के लिए लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं, वहां जन सेवकों के पास एकड़ों में फैला बंगला होना तो एक तरह की अश्लीलता ही है.
हर अंगरेजी शासन की उस भव्य जीवन शैली से आजतक प्रभावित हैं और हमारे शासक भी उसी अंदाज में जीना पसंद करते हैं. वरना मंत्रियों के लिए अलग अपार्टमेंट क्यों नहीं हो सकते. सचिवों के बंगलों को फ्लैट्स में क्यों नहीं बदला जा सकता, जहां एक बंगले में दस-बीस सचिव रह सकें. उसी तर्ज पर सरकारी अफसरों के लिए अपार्टमेंट या रेसिडेंशियल कॉम्प्लेक्स भी बनाये जा सकते हैं, जहां हजारों अफसर एक साथ बेहतर माहौल में रह सकें. जिन छह कॉलोनियों को विकसित करने की बात है. वह विकास वर्टिकल भी हो सकता है. उस विकास का फैलाव होरिजेंटल ही क्यों हो.
अगर क्वार्टरों के उपर क्वार्टर बन जाये, सीढ़ी या लिफ्ट लग जाये तो पैसा भी कम खर्च होगा और जमीन भी. हमें आवासों के मामले में अपार्टमेंट संस्कृति को अपना लेना चाहिए और जितनी जमीन बच गयी है उसे पेड़ों और वन्य जीवों के लिए छोड़ देना चाहिए. अगर हमने तत्काल ऐसा नहीं किया तो दिल्ली में पेड़ के साथ-साथ इंसान भी खत्म हो जायेंगे.
क्या सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करके दिल्ली में पेड़ों के मामले में वही फैसला नहीं सुनाना चाहिए जो उसने तालाबों के मामले में 2011 में सुनाया था कि किसी भी तालाब को भरना या उस पर अतिक्रमण करना गैरकानूनी होगा, भले ही वह किसी का निजी तालाब ही क्यों न हो और तालाबों की सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी होगी. पेड़ों के मामले में कम से कम शहरों में हमें ऐसे ही कानून की जरूरत है.