New Delhi, Jul 20 : उन दिनों आज तक 20 मिनट का होता था और कनॉट प्लेस के कॉम्पिटेंट हाउस में दफ्तर था। एक दिन एक इंटरव्यू के सिलसिले में गोपालदास नीरज जी आए तो कुछ साथियों के बीच उनकेे गानों पर बात होने लगी और होते-होते यहां तक हुआ कि मेरा नाम जोकर के एक गाने को लेकर दो लोगों में शर्त लग गई कि गीतकार कौन-नीरज या हसरत जयपुरी? गाना था-ए भाई ज़रा देख के चलो। नीरज जी से पूछा गया तो शरारती मुस्कान के साथ बोले शर्त किस चीज़ की लगी है। कहा गया- एक बोतल। मुस्कुराते हुए बोले हमारा भी हिस्सा होगा उसमें तभी बताएंगे। हामी भरवाने के बाद अपने खास अंदाज में हंसे और बोले भाई हमीं ने लिखा है।
ऐसे मस्त इनसान थे कारवां गुज़र गया लिखने वाले नीरज जी, अपने गाने रंगीला रे जैसे ही रंगीले जिन्होंने देवानंद की फिल्मों प्रेम पुजारी और गैंबलर के लिए जो गाने लिखे वो आज तक गुनगुनाए जाते हैं।
मंचीय कविता चुटकुलों में उनकेे दौर में ही बदलने लगी थी लेकिन नीरज की मौजूदगी कवि सम्मेलनों और मुशायरों की साख बचा लेती थी। उस मोर्चे के दिग्गजों में थे । उन्हें सुनने का कई बार मौका मिला। अपने गीतों और ग़ज़लों की लोकलुभावन अदायगी के लिए नीरज जी की बड़ी मांग होती थी। जब सब सुना चुके हों तब सुरूर में डूबे नीरज जी का माइक पर आना और झूमते हुए कहना – इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आप को सदियां हमें भुलाने में
और फिर वाह-वाह, दाद, तालियों के बीच एक के बाद एक सिलसिला ।
निजी बातचीत में बहुत बिंदास अपने प्रेम की बातें, किस्से भी और फिर अचानक एकदम सूफियाना टर्न ले लेते थे। मुलाकातों में एक स्नेहिल बुज़ुर्ग की तरह रहता था उनका बर्ताव।
हालांकि पिछले चारेक साल में उनकी सोच और झुकाव से मायूसी भी हुई, बुरा भी लगा।
उनके दैहिक अवसान से गीतों का, स्तरीय मंचीय कविता का एक दौर खत्म हो गया है।
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है
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