New Delhi, Mar 21 : भाई केदार जी का जाना निश्चित रूप से एक खालीपन छोड़ेगा , ज्यों ज्यों हम साहित्य का सिंहावलोकन करेंगे , कोई न कोई बीच मे बोलेगा -सुनो ! इस मौजू पर भाई केदार ने यह कहा है , और केवल ‘यह’ नही बल्कि भाषा और उस भाषा की जड़ से उठा यह शब्द चकिया( उनका गांव ) के अधगिरे खपरैल के पाख से फूटते पीपल के कोपल से लटकी बून्द है जो शहर के सम्भान्त अट्टालिकाओं को चुनौती देते हुए वहां स्थापित होती हैं । भाई केदार को पढ़ना, पढ़ना भर नही होता , वो आपको किताब से बाहर निकाल कर कदम कदम पर चौंकाएंगे , उनके बिम्ब और चित्र घूमते चलेंगे आपको समेटे हुए ।
हम रेलवे में थे । वहां एक मोहकमा होता है हिंदी विभाग । हर साल वह साहित्यकारों को जोड़ती है उनकी कमेटी बनती है । हमारे पास फाइल आई । हमने हिंदी अधिकारी से पूछा भाई इसमें केदार नाथ जी कहां हैं ? उसने कहा वो तो नही हैं । हमने वहीं उसी वक्त भाई नामवर सिंह का नाम काट कर उनकी जगह भाई Kedar Nath सिंह का नाम नाम जोड़ दिया । उसे हैरानी हुई हमने भाई नामवर जी को फोन मिलाओ । नामवर जी को पूरी घटना बताया कि आपका नाम काट कर भाई Kedar जी का नाम डाल दिया है । तो नामवर जी हँसे – ठीक त किया , हमहू ट्रेन से ऊब ग रहे हो , और जोर का ठहाका लगा । नामवर जी जब भी हमसे बतियाते हैं अपनी ही आत्मीय भाषा मे । यह गुण दोनो भाइयों में है भाई काशी में कुछ ज्यादा ही है । बहरहाल ।
नामवर जी , Kedar भाई , काशीनाथ सिंह दूधनाथ सिंह भाई विजय मोहन इनके अंदर का लेखक इसलिए भी मजबूत रहा कि इनका लेखकीय पुरुषार्थ त्रिलोचन की तरह सीना ताने चलता रहा । ‘
नामवर जी चुप रहे ,पान घुला रहा फिर धीरे से बोले – केदार जी ठहाका लगाना जानते ही नही । और यह सच है भाई केदार नाथ की छोटी से मुस्कुराहट किसी बड़े ठहाके से कहीं ज्यादा सम्प्रेषण देती रही ।
सादर नमन केदार भाई
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