‘लोअर मिडिल क्लास का मोदी के प्रति मोहभंग नहीं दिखता, 2019 की चाभी कस्बों और देहातों के वोटरों के हाथ में है’

2014 में जिस तरह से यूपीए सरकार के मुखालिफ एक माहौल था, सड़कों पर खुला विरोध था वैसा अभी तक देश में कोई बड़ा जनविरोध नहीं दिख रहा है।

New Delhi, Jan 14 : सड़कों पर, चाय की दुकानों पर, बाजार के नुक्कड़ों पर, चौराहों, तिराहों पर…. ठहरे हुए या चलते फिरते लोगों से जब टीवी रिपोर्टर पूछतें हैं कि 2019 में किसे वोट देंगे… राहुल या मोदी ? तब उसी भीड़ में दो-चार लोग आगे निकल कर बोलते हैं मोदी ….
लेकिन अगर मैं अपनी बात करूँ तो सरकारी दफ्तरों में , व्यापारियों के बीच में, माल में , फ्लाइट में, या मेट्रो की किसी पार्टी में जब हम मोदी को डिस्कस करते हैं तो अक्सर रुझान मोदी के पक्ष में कम, विरोध में ज्यादा मालुम देता है।

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ज़ाहिर है लोअर मिडिल क्लास (अगर मुस्लिम छोड़ दें) का मोदी के प्रति मोहभंग नहीं दिखता है। लेकिन मिडिल और अपर मिडिल क्लास, पढ़े लिखे नौकरीपेशा और व्यापार-दुकान से जुडी ट्रेडिंग क्लास में बहुत से ऐसे हैं जो मोदी से खुश नहीं दिखते। उनका मन बदला हुआ है। उन्हें बीजेपी से कहीं ज्यादा मोदी से दिक्कत है।
2014 में जिस तरह से यूपीए सरकार के मुखालिफ एक माहौल था, सड़कों पर खुला विरोध था वैसा अभी तक देश में कोई बड़ा जनविरोध नहीं दिख रहा है। चाहे पेट्रोल के दाम बेतहाशा बढ़े हों या नोटबंदी की मार हो, मोदी के खिलाफ जनता सड़कों पर नहीं उतरी।

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अमेरिकी अख़बार वाशिंगटन पोस्ट ने भी अपने सम्पादकीय में लिखा है कि तीन राज्यों में पराजय के बाद मोदी, नर्वस तो दिख रहे हैं पर ये नहीं कहा जा सकता कि वो ‘एग्जिट डोर’ पर जा पहुंचे हैं। बीजेपी के भीतर भी कई बड़े नेता हैं जो वाशिंगटन पोस्ट जैसे लाईन को फॉलो कर रहे हैं। यानि उन्हें भी पूरी तरह भरोसा नहीं है कि मोदी एग्जिट कर रहें हैं… शायद यही वजह है कि मुरली मनोहर जोशी या अडवाणी भी चुप हैं। जोशी कुछ दिन मोदी विरोध में यशवंत सिन्हा के साथ तो दिखे पर बाद में फिर घर बैठ गए। गडकरी, राजनाथ और सुषमा भी हवा का रुख ही देख रहे हैं।

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देश में गैर राजनैतिक एक तबका ऐसा भी है जो ये मानता है कि मोदी ने बीते साढ़े चार वर्षों में कुछ ख़ास तो नहीं किया लेकिन देश के लिए गठबंधन जैसी सरकार और भी बदतर साबित होगी। उधर आरएसएस में एक सोच ये भी है कि मोदी की मनमानी और अमित शाह के अहंकार ने बीजेपी का अगर फायदा किया तो नुकसान भी काफी किया है। अगर पार्टी नेतृत्व में शाह की जगह शिवराज जैसा कोई सहज नेता आये तो कॉडर की नाराज़गी कम की जा सकती है।
बहरहाल 2019 को लेकर देश की नब्ज़ समझने में सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि देश की मीडिया आज पूरी तरह से दो खेमों में बंटी है। एक मोदी के साथ और एक मोदी के विरोध में। इस खेमेबाज़ी का असर सबसे ज्यादा खबरों की साख पर पड़ा है। नतीजा ये है कि पढ़ा लिखा वोटर आज ज्यादा कन्फ्यूज़्ड है।
मुझे ऐसा लगता है कि 2019 की चाभी अनपढ़ वोटर के हाथ में है जिसकी राय ज्यादा साफ़ है।
कोशिश करूँगा अगली पोस्ट कुछ कस्बों-देहातों से लौटकर लिखूं।

(वरिष्ठ पत्रकार दीपक शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)