जब जॉर्ज फर्नांडिस ने करवा दी थी रेलवे की सबसे बड़ी हड़ताल, इंदिरा गांधी भी रह गई थी हैरान

बिहार में जार्ज फर्नांडिस को एक बिहारी नेता के तौर पर ही जाना जाता है. लोगों को ये पता ही नहीं कि जार्ज कहां के थे और कहां से होकर आए।

New Delhi, Jan 29 : मुड़ा-तुड़ा कुर्ता, उसी तरह का पायजामा, बाटा की लाल रंग की चमड़े की चप्पल और आंखों पर बड़े फ्रेम का चौकोर चश्मा. इतना कहने भर से जिस नेता की छवि उभरती है -वो हैं जार्ज फर्नांडिस. १९८९ में जार्ज मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ रहे थे और मेरे गांव में उनकी चर्चा थी. सुबह शाम कहीं ना कहीं लोगों का जमघट लग जाता और चुनावी चौपाल सज जाती. वीपी सिंह की अगुआई में जनता दल राजीव गांधी पर हमलावर था, बोफोर्स का हल्ला था और मेरे लोकसभा क्षेत्र महाराजगंज से चंद्रशेखर चुनाव लड़ रहे थे. सो, उस साल चुनावों को लेकर कुछ ज्यादा ही हलचल थी गांव में. उन्हीं बतकहियों में मैंने किसी से सुना कि ७७ में तो जार्ज को इंदिरा गांधी ने जेल में डाल रखा था, फिर भी चुनाव जीत गए. इस बार भी पक्का जीतेंगे. जार्ज मुजफ्फपुर से चुनाव जीते और वीपी सिंह सरकार में रेल मंत्री बने. बाद में जब राजनीति की बारिकियों को समझने लगा, नेताओं को अपने लिहाज से पढने-जानने लगा तो जार्ज को लेकर एक खास तरह की राय बनी. और ये राय जार्ज के बैकग्राउंड, उनके संघर्ष और उनकी कुछ ऐसी खूबियों के आधार पर पैदा हुई जो उन्हें आम आदमी से अलग कर रही थी. मसलन मैंने बाद में ये जाना कि जार्ज कन्नड़ है- वे मंगलोर में पैदा हुए. ऐसा लड़का जो कैथोलिक परिवार में पैदा हुआ, धर्म-शिक्षा के लिये मिशनरी भेजा गया, लेकिन वहां से भाग गया. ऐसा नौजवान जो १९ साल की उम्र में मुंबई पहुंचा और चौपाटी के बस अड्डे की बेंच पर सोया करता था, जिसे पुलिसवाला अक्सर आकर डांटता-फटकारता और वो नौजवान नीचे जमीन पर सो जाया करता. एक ऐसा मजदूर नेता जिसने देश की सबसे बड़ी रेलवे हड़ताल की अगुआई की. और एक ऐसा समाजवादी नेता जो लोहिया के नजदीक रहा- उनके नक्शे कदम पर चला और देश के उद्योग मंत्री से लेकर रेल मंत्री और रक्षा मंत्री के ओहदे पर रहा.

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ये बहुत कम लोग जानते होंगे कि जार्ज जब मिशनरी से भागे तो पेट चलाने के लिेये मैंगलोर के होटल और रेस्तरां में काम करने लगे. तब उनकी उम्र १९ साल की थी. नौकरी की तलाश में वे मुंबई आ गए. यहां कोई ठौर-ठिकाना था नहीं , सो चौपाटी के बस स्टैंड पर रात में सो जाया करते. जब कभी गश्त पर निकला पुलिसवाला आता तो डांटता-फटकारता और फिर जार्ज आहिस्ता बेंच से उठकर आसपास जमीन पर सो जाया करते. ऐसा अक्सर होता. बाद में एक अखबार में प्रूफ रीडर की नौकरी मिल गई. मुंबई में रहने का ज़रिया मिल गया. इसी वक्त जार्ज, राम मनोहर लोहिया के संपर्क मे आए और लोहिया पर अपना असर भी छोड़ा. ये पचास के दशक का दौर था. जार्ज मुंबई में धीरे-धीरे मजदूरों की आवाज बनने लगे थे. अपने तेवर औऱ जुझारुपन के चलते मजदूरों में उनकी साख बढती गई और १९६१ में जार्ज मुंबई म्यूनिसिपल कार्पोरेशन के लिये चुने गए. वे अब नेताओं की नजर में भी थे और इसका नतीजा ये हुआ कि ६७ के चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने उन्हें दक्षिण मुंबई से कांग्रेस के दिग्गज नेता एस के पाटील के खिलाफ उतार दिया. जार्ज ने ये चुनाव भारी अंतर से जीता और देश में उनका डंका बज गया. लोग जार्ज को ‘जॉर्ज द जेंटकिलर’ कहने लगे. यहां से जार्ज ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. १९७४ में वे ऑल इंडिया रेलवे फेडरेन के अध्यक्ष चुने गए और हिंदुस्तान में रेलवे की अबतक की सबसे बड़ी हड़ताल करवाई. इंदिरा सरकार बौखळा गई और लगभग तीस हजार लोग गिरफ्तार किए गए. यह हड़ताल वेतन औऱ आवासीय भत्ता बढाने को लेकर हुई थी और इस ने देश के नेताओं मे जार्ज का कद बहुत बड़ा कर दिया. लिहाजा इंदिरा गांधी ने जब जून १९७५ में इमरजेंसी लागू की तो जिन नेताओं पर खास नजर थी, उनमें जार्ज भी थे. जार्ज अंडरग्राउंड हो गए. उन्होेंने सरदार का हुलिया बदल लिया और जब कोई पूछता तो खुद को खुशवंत सिंह बताते. सालभर भागते-बचते रहे, लेकिन जून १९७६ में कोलकाता से गिरफ्तार कर लिए गए. जार्ज को पहले वड़ोदरा, फिर तिहाड़ में रखा गया. कहते हैं कि वड़ोदरा जेल में वो कैदियों को गीता पढकर सुनाया करते थे. मुझे लगता है कि इमरजेंसी के दौरान जार्ज ऐसे इकलौते नेता थे जिनके बारे में दुनिया के कई देशों ने चिंता जाहिर की थी. आस्ट्रेलिया, जर्मनी औऱ नार्वे ने अंदेशा जताया था कि इंदिरा सरकार जार्ज को नुकसान पहुंचा सकती है. एमनेस्टी इंटरनेशल ने तो सरकार से बाकायदा गुजारिश की थी कि उन्हें वकील मुहैया करााय जाय. जार्ज का कद तब इतना बड़ा हो चुका था. इमरजेंसी के बाद जब ७७ में चुनाव हुए तो जार्ज मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़े. तब जेल में ही थे और जेल से ही जीते. इसी का जिक्र मैं ऊपर कर रहा था. गांव में चुनाव पर चल रही बातचीत में मुझे यह बात सुनाई पड़ी थी औऱ आजतक याद है.

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पत्रकारिता में जब आया तो थोड़े समय बाद ही वाजपेयी सराकार आ गयी औऱ जार्ज रक्षा मंत्री बने. इसी वक्त मुझे पता चला कि जार्ज ने लैला कबीर नाम के महिला से शादी की है और उनसे एक बेटा भी है. यह बात हम पत्रकारों की किसी चर्चा में ही आई थी, क्योंकि उस वक्त हम जार्ज और उनकी पार्टी की नेता जया जेटली की बात कर रहे थे. लैला कबीर खबरों में तब आईं जब २०१० में जार्ज बीमार पड़े और उन्होंने अदालत में जार्ज की देखरेख के लिए अर्जी लगाई. दिल्ली हाईकोर्ट ने तब ये आदेश दिया कि जार्ज को कबीर के घर के आसपास ही रखा जाए. इस फैसले के करीब दो साल बाद लैला कबीर और जया जेटली फिर आमने-सामने आईं. जया जेटली ने सुप्रीम कोर्ट में शिकायत की कि लैला कबीर उनको जार्ज से मिलने नहीं देती हैं. इसके बाद अदालत ने कहा कि जया जेटली को जार्ज से मिलने से नहीं रोका जा सकता है और लैला कबीर ऐसा ना करें.

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खैर, जार्ज जब वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री बने तो उनकी यह पारी कई लिहाज से यादगार पारी रही. खासकर पोखरण में परमाणु परीक्षण और करगिल युद्द में भारत विजय के लिहाज से. लेकिन यहां ये बताना भी जरुरी ये है कि जार्ज ऐसे इकलौते रक्षा मंत्री रहे, जिन्होंने अपने दफ्तर में हिरोशिमा पर एटमी हमले की फोटो लगा रखी थी. रक्षा मंत्री होने के बावजदू इंसानी तबाहियों के खिलाफ एक मूक ऐलान थी ये तस्वीर. दूसरी बात ये कि बतौर रक्षा मंत्री जार्ज रिकार्ड दफा सियाचन गए. ये बात भी कम ही पता होगी कि स्कूल-कॉलेज की रस्मी तालीम नहीं लेने के बावजूद जार्ज १० भाषाओं के जानकार थे. मंगलोर में पैदा हुआ आदमी, मुंबई में मजदूर नेता और नेता बना, फिर बिहार को अपनी कर्मभूमि बनाकर वहां के दलों और जनता से लगातार जुड़ा रहा. बिहार में जार्ज को एक बिहारी नेता के तौर पर ही जाना जाता है. लोगों को ये पता ही नहीं कि जार्ज कहां के थे और कहां से होकर आए. बस जार्ज है, हमारे नेता है. लेकिन दुर्भाग्य ये रहा कि उस जार्ज को आखिरी दिनों में बिहार के नेताओं ने ही दरकिनार कर दिया और वे हाशिए पर चले गए. वैसे देश में जब भी समाजवादी आंदोलन और इस आंदोलन से पैदा हुए कद्दावर नेताओं की बात होगी, जार्ज का जिक्र जरुर होगा. उनके जीवन की तरह उनका दिल्ली का आवास भी रहा- मैं जब कभी तीन कृष्ण मेनन मार्ग से गुजरा, गेट खुला और बिना संतरी-वंतरी के ही दिखा. आज मेरे गांव में वो पीढी साठ पार है, जो जार्ज के ८९ में मुजफ्फपुर से चुनाव लड़ने की चर्चा कर रही थी- वो आज फिर गांव के किसी मोड़ पर, खेत में या बाजार में जार्ज की काहनियां कह-सुन रही होगी.

(India News के प्रबंध संपादक राणा यशवंत के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)