कौन रोक पाएगा राजनीति में अपराधियों व धनबलियों को ?

सबने भ्रष्टाचार और अपराधीकरण पर गंभीर चिंता प्रकट की।पर आज तक जब कुछ नहीं हुआ तो कहा जा सकता है कि उन्होंने तब घडि़याली आंसू ही बहाए थे।

New Delhi, Apr 29 : इस चुनाव के दौरान जितने अधिक पैसों की जब्ती हुई है,वह एक रिकाॅर्ड है।इन पैसों का इस्तेमाल चुनाव को प्रभावित करने के लिए होने वाला था। पर, इसके अलावा कितने पैसे इस बार भी जब्ती से बच गए,उसका तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।
अनेक राज्यों से यह खबर आती रहती है कि मतदाताओं के बीच उपहारों के अलावा नकद पैसे भी बांटे जा रहे हैं।यह काम बड़े पैमाने पर हो रहा है।इसका कितने मतदाताओं पर कितना असर होता रहा है,यह शोध और जांच का विषय है।

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एक और चलन व्यापक होता जा रहा है।चुनाव की टिकटें खुलेआम बेची जा रही है।पहले एक या दो राजनीतिक दल ऐसा करते थे।अब ऐसे दलों की संख्या बढती़ जा रही है।कोई भी ‘धनपशु’ सरीखा नेता दल बदल कर किसी भी दल से टिकट हासिल कर रहा है।अपवादों की बात और है।
इतना ही नहीं,राजनीति में मलीनता के और भी लक्षण सामने आते जा रहे हैं।
वे तो अधिक गंभीर हैं।
इस बार जितनी बड़ी संख्या में बाहुबली और उनके परिजन चुनाव लड़ रहे हैं,वह भी एक रिकाॅर्ड ही है।वंशवाद और परिवारवाद की समस्या अलग है।इस समस्या के कारण तो कतिपय दल बर्बादी के कागर पर हैं।पर उसकी परवाह किसे है ?
दलों व नेताओं के बड़े -बड़े दावों और सुनहरे सपनों के बीच ये तत्व देश की राजनीति को बुरी तरह बदरंग कर रहे हैं।

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इस पर आखिर कौन और कब काबू पाएगा ?
क्या अब काबू पाया भी जा सकेगा या नहीं !
यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है।
वैसे आधे मन से प्रयास तो राजनीतिक व्यवस्था की तरफ से भी होते रहे हंै।
कुछ दल खुलेआम कहते रहे हैं कि हम बाघ के खिलाफ बकरी को तो चुनाव में खड़ा नहीं कर सकते !
बाघ यानी खूंखार अपराधी और बकरी से उनका आशय शरीफ आदमी से होता है।
भ्रष्टाचार व अपराधीकरण के खिलाफ सबसे गंभीर प्रयास सन 1997 में भारतीय संसद ने किया था।
आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर जब लोक सभा के अंदर ही दो बाहुबली सांसदों ने आपस में मारपीट कर ली तो पूरी संसद चिंतित हो उठी।

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इस पर संसद की विशेष बैठक हुई। सर्वसम्मत प्रस्ताव पास किया गया।प्रस्ताव के जरिए ‘भ्रष्टाचार समाप्त करने ,राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ- साथ चुनाव सुधार करने का संकल्प भी किया गया।
जनसंख्या वृद्धि,निरक्षरता और बेरोजगारी को दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का भी संकल्प किया गया।’
मुख्यतः भ्रष्टाचार व अपराध विरोधी उस प्रस्ताव को प्रतिपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने सदन में रखा था।
तब प्रधान मंत्री इंदर कुमार गुजराल थे।
स्पीकर पी.ए.संगमा ने भी लीेक से हटकर उस प्रस्ताव पर लोक सभा में भाषण किया था। कुल 218 सदस्य बोले थे।
सबने भ्रष्टाचार और अपराधीकरण पर गंभीर चिंता प्रकट की।पर आज तक जब कुछ नहीं हुआ तो कहा जा सकता है कि उन्होंने तब घडि़याली आंसू ही बहाए थे।

दोनों सदनों ने एक जैसे प्रस्ताव पास किये ।प्रस्ताव की प्रति पर लोक सभा के अध्यक्ष पी.ए.संगमा और राज्य सभा के सभापति कृष्णकांत सहित सभी सदस्यों ने हस्ताक्षर किये थे।प्रस्ताव सदन की कार्यवाही का हिस्सा बन गया।
पर अंततः क्या हुआ ? उन नेताओं ने जिन्होंने संसद में घडि़याली आंसू बहाए थे,अपराध व भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कोई कारगर उपाय नहीं किए।
दरअसल राजनीति में अपराधियों के प्रवेश की भी पृष्ठभूमि है।
इस देश में औसतन सिर्फ 46 प्रतिशत आरोपितों को ही अदालतों से सजा हो पाती है।
कई राज्यों में सजा का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से भी काफी कम है।
यानी वहां अपराधियों का एक गिरोह समाज के एक हिस्से को और दूसरा गिरोह दूसरे हिस्से को ‘न्याय’ दिलाता है या रक्षा करता है।भले यह अधूरा न्याय है ,पर कुछ तो है।नतीजतन ऐसे अपराधी अपने -अपने समाज के हीरो बन रहे हैं।वे चुनाव लड़ते हैं।कुछ जीत भी जाते हैं।
सिद्धांत-निष्ठा व कार्यकत्र्ता विहीन होते राजनीतिक दलों के लिए यह आसान हो गया है कि ऐसे अपराधियों को टिकट देकर जीत के लिए निश्चिंत हो जाया जाए।
यदि इस बीच किसी अपराधी को सजा हो गई तो उसके परिजन को राजनीतिक दल टिकट दे देते हैं।

इससे कानून का शासन कायम करने में और भी दिक्कतें आने लगी हैं।
इधर राजनीति का अपराधीकरण बढ़ता जा रहा है।
अपराधी से जन प्रतिनिधि बने नेतागण अपने प्रभाव क्षेत्र में ऐसे अफसरों की तैनाती में भी भूमिका निभाते हैं जो उनके अपराधों की ओर से आंखें मूंदे रहें।
इस पृष्ठभूमि में अपराध व भ्रष्टाचार पर काबू पाना दिन प्रति दिन कठिन होता जा रहा है।
इस स्थिति पर काबू पाने के लिए सर्वाधिक जरूरी यह है कि अदालतों से सजाओं का प्रतिशत बढ़ाया जाए।क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को मजबूत किया जाए।
पर इसे करेगा कौन ?
किसी मसीहा के इंतजार के सिवा आम लोगों के सामने कोई अन्य उपाय फिलहाल नजर ही नहीं आ रहा है।
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)