Opinion – अनुत्तरित हैं बोफर्स सौदे के कई प्रश्न

बोफर्स दलाली मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे.डी.कपूर ने 4 फरवरी 2004 को राजीव गांधी को क्लीन चीट दे दी।

New Delhi, May 08 : अभी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने राजीव गांधी का नाम लिए बिना बोफर्स तोप सौदे की चर्चा की। इससे कांग्रेस के नेता और कुछ अन्य लोग आपे से बाहर हो गए।
लेकिन यह समझने की जरूरत है कि जब तक बोफर्स तोप सौदे को लेकर उठे प्रश्न अनुत्तरित बने रहते हैं तब तक उनसे पीछा नहीं छूटने वाला है। जनहित याचिका के रूप में अब भी बोफर्स का मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।सी.बी.आई.ने भी इस केस को फिर से खोलने की अपील सुप्रीम कोर्ट से की थी। अदालत ने देर हो जाने के आधार पर सी.बी.आई. की याचिका को नामंजूर करते हुए कहा कि अजय अग्रवाल की लोकहित याचिका पर जब सुनवाई होगी तब आप अपना भी पक्ष रख सकते हैं।

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हालांकि सी.बी.आई. ने यह तर्क भी दिया था कि बाबरी मस्जिद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने देर को ध्यान में नहीं रखते हुए आडवाणी तथा अन्य के खिलाफ फिर से सुनवाई करने का आदेश दे दिया । खैर, यह सभी पक्षों के हक में होगा कि बोफर्स सौदे से संबंधित मुकदमे को तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया जाए। यह बात उन लोगों के हक में अधिक होगी जो यह मानते हैं कि इस सौदे में राजीव गांधी का कोई हाथ नहीं था। लेकिन यह तभी हो सकेगा जब इससे संबंधित कुछ महत्वपूर्ण सवालों के जवाब मिल जाएं। जब भी कोई व्यक्ति बोफर्स सौदे से राजीव गांधी या किसी अन्य का नाम जोड़ता है तो सवाल उठाया जाता है कि किसी अदालत ने राजीव गांधी को दोषी तो नहीं ठहराया है। यह बात सही है। नहीं ठहराया है, पर सवाल है कि क्या अदालतों को इस मामले में ंकाम करने दिया गया ?

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क्या जांच एजेंसियों को भी काम करने दिया गया ? सच तो यह है कि सरकार बदलते ही जांच एजेंसियों के रुख भी बदलते रहे। क्या बोफर्स से संबंधित मुकदमे की सुनवाई लोअर कोर्ट से होते हुए अंततः सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची ? क्या पहुंचने दी गई ? जब दिल्ली हाईकोर्ट ने राजीव गांधी और अन्य आरोपितों को दोषमुक्त घोषित किया तो क्या जांच एजेंसी को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की इजाजत केंद्र सरकार ने दी ? नहीं दी।पूछे जाने पर तत्कालीन प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह ने कहा कि ‘सरकार गैर जरूरी अपीलों में नहीं जाती।’ जिस घोटाले के पैसे दो बैंक खातांे में पाए जा चुके थे ,उस मामले को भी सरकार ने गैर जरूरी समझा। आखिर क्यों ? खुद भारत सरकार के आयकर अपीलीय न्यायाधीकरण ने भी 3 जनवरी 2011 को कहा कि बोफर्स तोप सौदे में ओट्टावियो क्वात्रोचि और विन चड्ढा को 41 करोड़ रुपए दलाली दी गई थी।

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ऐसी आय पर उन पर भारत में टैक्स की देनदारी बनती है। सवाल है कि उनसे टैक्स की वसूली क्यों नहीं हुई ? बोफर्स दलाली मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे.डी.कपूर ने 4 फरवरी 2004 को राजीव गांधी को क्लीन चीट दे दी।अदालत ने हिन्दुजा बंधुओं को भी आरोप मुक्त कर दिया। सन 2009 में सी.बी.आई.ने अदालत से क्वात्रोचि के खिलाफ दायर केस को वापस करने की अनुमति मांगी। दिल्ली हाईकोर्ट के क्लीन चीट वाले निर्णय के खिलाफ अपील क्यों नहीं की गई जबकि जानकारों के अनुसार हाईकोर्ट ने ठोस सबूतों को अनदेखी करते हुए वैसा जजमेंट दिया था ? इस सवाल का जवाब अनुत्तरित है । इस मामले को जरा शुरू से देखें।
24 मार्च 1986 को भारत सरकार और स्वीडन की कंपनी ए.बी.बोफर्स के बीच 1437 करोड़ रुपए का 400 हाउजर फील्ड गन खरीद के लिए अनुबंध हुआ।

16 अप्रैल 1987 को स्वीडेन रेडियो ने यह खबर प्रसारित की कि इस सौदे में प्रमुख भारतीय नेताओं और प्रमुख रक्षा अधिकारियों को रिश्वत दी गई। जब यह खबर भारतीय मीडिया में जोर- शोर से छपने लगी तो केंद्र सरकार ने कहा कि इस सौदे में कोई दलाली नहीं दी गई।
एक तरफ इनकार और दूसरी तरफ सबूत पर सबूत आने लगे। बोफर्स तथा उस समय के कुछ अन्य घोटाले लोस चुनाव के मुख्य मुद्दा बन गए। प्रतिपक्ष हमलावर था और सरकार बचाव की मुद्रा में ।पूरा 1989 लोक सभा चुनाव बोफर्स घोटाले के मुद्दे पर लड़ा गया।गांव -गांव बोफर्स शब्द प्रचलित हो गया।लोगों ने इसे संवदेनशील मामला माना क्यांेकि देश की रक्षा से जुड़ा था।
राजीव गांधी सत्ता से हटे। वी.पी.सिंह प्रधान मंत्री बने। वी.पी.सिंह सरकार के कार्यकाल में सी.बी.आई.ने जनवरी, 1990 में इस मामले में केस दर्ज किया।

अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में सन 1999 और 2000 में आरोप पत्र दाखिल किए गए।
आरोप पत्र में राजीव गांधी का नाम 20 बार आया है। जब- जब कांग्रेस या कांग्रेस समर्थित सरकार बनी बोफर्स मामले की जांच में पूरी ढिलाई हुई । मुकदमे को रफादफा करने की कोशिश हुई।  स्वीडेन की नेशनल आॅडिट ब्यूरो ने 4 जून 1987 को कह दिया था कि बोफर्स में दलाली खाई गई है।उसके बाद से सत्ताधारी नेताओं ने दोषियों को बचाने की जोरदार कोशिश शुरू कर दी।
वे किसे बचा रहे थे ? और क्यों ? 1988 में वी.पी.सिंह ने पटना की जन सभा में स्विस बैंक की लंदन शाखा के उस बैंक खाते का नंबर भी जाहिर कर दिया जिसमें दलाली के पैसे जमा थे।
फिर भी सरकार व जांच एजेंसियों ने कोई कार्रवाई नहीं की। उल्टे बी.शंकरानंद के नेतृत्व में गठित संयुक्त संसदीय समिति ने कह दिया कि कोई दलाली नहीं ली गई है।

पर सरकार बदलने पर जांच शुरू हुई तो पता चला कि वी.पी.सिंह द्वारा बताया गया खाता नंबर सही है। 1990 में ही उस खाते को जब्त करवा दिया गया था। पर 2006 में केंद्र सरकार ने एक अफसर लंदन भेज कर उस खाते को चालू करवा दिया। जबकि उसी दिन सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश आया कि खाते को चालू नहीं किया जाएगा। उस खाते में क्वात्रोचि के करीब 21 करोड़ रुपए थे।उसे उसने निकाल भी लिया। बोफर्स केस में नाम आने के बाद क्वात्रोचि 1993 में भारत छोड़कर इटली भाग गया। उसे भगाने में किसने मदद की ? सरकार ने क्वात्रोचि को लाभ पहुंचाने के लिए ऐसा कदम क्यों उठाया ? इस मामले को लेकर विदेश मंत्री माधव सिंह सोलंकी को मंत्री पद से क्यों हटना पड़ा ?

पी.वी.नरसिंंह राव के प्रधान मंत्रित्वकाल में विदेश मंत्री दावोस गए थे।वे अपने साथ एक नोट भी ले गए थे।सोलंकी ने स्विस विदेश मंत्री से आग्रह किया था कि वे जांच एजेंसी को सहयोग न करें क्योंकि बोफर्स केस राजनीति से प्रेरित है। यह जानकारी जब भारत आई तो देश में भारी हंगामा हुआ तो माधव सिंह सोलंकी को मंत्री पद छोड़ना पड़ा था। सोलंकी आखिर किसे बचाना चाहते थे ? किसने उन्हें स्विस विदेश मंत्री से ऐसा कहने के लिए कहा था ? 18 अगस्त 2016 को मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ में कहा था कि रक्षा मंत्री के रूप में मैंने बोफर्स की फाइल गायब करवा दी थी। उन्होंने यह भी कहा कि चूंकि बोफर्स तोप ने अच्छा काम किया ,इसलिए मैंने उस केस को आगे बढ़ाने में रूचि नहीं ली।

सवाल है कि सी.बी.आई.ने मुलायम से क्यों नहीं पूछा कि आपने किसके दबाव मंंे ऐसा किया ? याद रहे कि मुलायम सिंह यादव उस सरकार के मंत्री थे जो कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चल रही थी। क्या सचमुच बोफर्स तोप अच्छी है ? अच्छी तो है,पर फ्रंेच तोप सोफ्मा से बेहतर नहीं है।
सोफ्मा को भी तब भारत में बेचने की कोशिश हुई थी। तत्कालीन सेनाध्यक्ष ने सोफ्मा खरीदने की ही सिफारिश सरकार से की थी। पर सरकार बोफर्स के पक्ष में थी क्योंकि सोफ्मा कंपनी किसी को दलाली नहीं देती थी। बोफर्स देती थी। बाद में उच्चस्तरीय निदेश पर सेनाध्यक्ष ने अपनी राय बोफर्स के पक्ष में दे दी। सरकार में कौन थे जो बोफर्स की खरीद में पूरी रूचि ले रहे थे ?

पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल के.सुंदरजी ने 7 फरवरी 1997 को कहा कि इस बात में संदेह की बहुत कम गुंजाइश है कि बोफर्स तोप सौदे की दलाली को छिपाने में तत्कालीन प्रधान मंत्री कार्यालय सक्रिय था। मुझे बताया गया कि स्वर्गीय राजीव गांधी को बचाने के लिए ऐसा किया गया।
सुंदरजी ने यह भी कहा कि तत्कालीन रक्षा राज्य मंत्री अरुण सिंह सरकार से इस्तीफा देने के बाद मेरे पास आए और कहा कि केवल एक व्यक्ति की खाल बचाने के लिए इस प्रकरण को छिपाया गया। पूछे जाने पर सुंदर जी ने खोल दिया।कहा कि जाहिर है कि वे तत्कालीन प्रधान मंत्री का जिक्र कर रहे थे।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)