सेकुलर गैंग- जनादेश का सम्मान करने के बजाय, लोगों को भड़काने का इनका दूसरा कार्यकाल शुरु

शपथ लेने से पहले ही मोदी अल्पसंख्यकों को भरोसा जीतने में जुटे हैं और उधर “बुद्धिजीवी गैंग” मुसलमानों के जेहन में जबरिया डर बैठाने में जुट गया है।

New Delhi, May 28 : इस देश का “लिबरलवादी सिकलुर गैंग” अपनी हरकतों से कभी बाज़ नहीं आ सकता… लोकतंत्र के फैसले का सम्मान करने की बजाए, लोगों को भड़काने का इनका “दूसरा कार्यकाल” शुरु हो चुका है… और इसके लिए सिकलुर गैंग ने अपने सबसे आसान शिकार इस देश के मुसलमान को चुना है… शपथ लेने से पहले ही मोदी अल्पसंख्यकों को भरोसा जीतने में जुटे हैं और उधर “बुद्धिजीवी गैंग” मुसलमानों के जेहन में जबरिया डर बैठाने में जुट गया है… और इस “लिबरलवादी सिकलुर गैंग” को मिल रहा है “कट्टरपंथी लॉ बोर्ड” का साथ, जो अपनी कौम के नाम चिट्ठी लिखकर कह रहा है कि “मुसलमानों के लिए आने वाले समय में हालात परेशानी भरे हो सकते हैं”

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“कट्टरपंथी लॉ बोर्ड” और “लिबरलवादी सिकलुर गैंग” ऐसे हालात क्यों बना रहे हैं ??? और इसका अंजाम क्या होगा ??? इस सवाल का जवाब मैंने इतिहास में ढूंढने की कोशिश की… क्योंकि इतिहास 360 डिग्री का वो चक्र है जो खुद को दोहराता है… और यही मुझे डर है… चलिए 2019 से चलते हैं 1919 में…
पढ़ने में थोड़ा समय लगेगा, लेकिन समझना ज़रूरी है… 1919 में इस देश में मुसलमानों ने खिलाफत आंदोलन शुरु किया… कई लोगों को गलतफहमी है कि ये आंदोलन आजादी के लिए था लेकिन हकीकत में इसका आजादी से कोई लेना देना नहीं था बल्कि ये तुर्की में खलीफा के पद की फिर से स्थापना के लिए था… तुर्की का खलीफा पूरे मुसलमानों का नेता होता था जिसे तुर्की के राष्ट्रवादी नायक अता तुर्क मुस्तफा कमाल पाशा ने सत्ता से हटा दिया था और इसके लिए मुस्लिम जगत ब्रिटेन को जिम्मेदार मानता था… इसी से विचलित होकर भारत के कट्टरपंथी मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार के विरूध्द खिलाफत आंदोलन शुरु किया था जिसे गांधी जी का भी सहयोग प्राप्त था… मुसलमानों की उस समय की इस सोच पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी किताब “डिस्कवरी ऑफ इंडिया” के पेज नंबर 399 पर लिखा है – “हिंदुस्तान के मुसलमानों ने इस्लाम की उस सफलता (तुर्की का खलीफा शासन) पर अभिमान किया जो दरअसल दूसरे मुल्क का मामला था”…

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खैर… पूरी दुनिया की तरह खिलाफत आंदोलन भारत में भी नाकाम हो गया… लेकिन उस दौर में भी “कट्टरपंथी लॉ बोर्ड” जैसे ही रहनुमा और उनका साथ देने वाला “सिकलुर गैंग” सक्रिय था… नतीजा जब ये तय हो गया कि तुर्की में कमाल पाशा को उखाड़ कर नहीं फेंका जा सकता है फिर भी हिंदुस्तान के धर्मांध मुल्ला और मौलवी अचानक नफरत की आग फैलाने के लिए आगे आ गए… और इनमें सबसे आगे थे “अली बंधु” वाले मोहम्मद अली जौहर (जिनके नाम पर आज़म खान ने रामपुर में यूनिवर्सिटी बनाई है)… मोहम्मद अली जौहर और उनके एक साथी मौलाना अब्दुल बारी जो कि एक बहुत बड़े मुस्लिम धर्मगुरू थे, उन्होने हिंदुस्तान को “दारुल-हरब” घोषित कर दिया… “दारुल-हरब” यानि ऐसा देश जहां इस्लामी कानून नहीं चलता और वहां उन दूसरे धर्म के लोगों का शासन होता है जो अल्लाह को नहीं मानते…

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मौलाना अब्दुल बारी ने अपने फतवे में आगे कहा कि चूंकि हिंदुस्तान “दारुल-हरब” है इसलिए इस देश के मुसलमानों को “दारुल इस्लाम” (यानि ऐसा देश जहां इस्लाम का शासन है) में “हिजरत” यानि चले जाना चाहिए… बस फिर क्या था… उत्तर भारत के करीब 20 हज़ार मासूम मुसलमान अपने मौलवियों के फरमान के बाद अपनी ज़मीन जायदाद जेवरात बेचकर अफगानिस्तान की ओर कूच कर गए… अफगानिस्तान इसलिए क्योंकि तब हिंदुस्तान की धरती से सटा अफगानिस्तान ही वो मुल्क था जहां “दारुल इस्लाम” यानि इस्लामिक शासन कायम था…

लेकिन ये सब इन मासूम मुसलमानों को बहुत महंगा पड़ा… अफगानिस्तान में इनका खूनी स्वागत हुआ… अफगानिस्तान के कबायली लुटेरों ने अपने इन हममज़हबों को जमकर लूटा, उनके साथ खून खराबा किया और ले जाकर फिर हिंदुस्तान की सरहदों पर खदे़ड़ दिया… जब ये हिंदुस्तानी मुसलमान वापस अपने वतन अपने शहर पहुंचे तो उनके हाथ खाली थे, क्योंकि वो अपनी जायदाद पहले ही बेच चुके थे… और शायद उस दिन उन्हे अहसास हुआ होगा कि धर्म के नाम पर फैलाये गए डर से भागना कितना खतरनाक होता है…

(वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)