Opinion – तिब्बत से क्यों डरे चीन?

भारत और नेपाल भी तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग बता चुके हैं। फिर भी चीन के शासक पता नहीं क्यों इतने डरे हुए हैं ?

New Delhi, Jul 10 : नेपाल में लगभग 20 हजार तिब्बती शरणार्थी रहते हैं। इस बार 6 जुलाई को उन्हें नेपाली सरकार ने दलाई लामा की जयंति नहीं मनाने दी। दलाई लामा का यह 84 वां जन्मदिन था। नेपाल में बरसों से रह रहे हजारो तिब्बतियों को इसलिए निराश होना पड़ा कि उस पर चीन का भारी दबाव है। चीन बिल्कुल नहीं चाहता कि तिब्बती लोग नेपाल या भारत में रहकर कोई चीन-विरोधी आंदोलन चलाएं।

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इन दिनों भारत और नेपाल दोनों ही चीन को गांठने में लगे हुए हैं। नेपाल में जबसे पुष्पकमल दहल प्रचंड और के पी ओली की कम्युनिस्ट सरकारें बनी हैं, चीन का दबाव बहुत बढ़ गया है। चीन और नेपाल की सीमा 1236 किमी तक फैली हुई है। इस सीमा पर कड़ी सुरक्षा के बावजूद इतने रास्ते बने हुए हैं कि तिब्बत से भागकर आनेवाले लोगों को रोकना दोनों देशों के लिए कठिन होता है। जब से (1950) तिब्बत पर चीन का कब्जा हुआ है और दलाई लामा (1959) भागकर भारत आए हैं, हर साल तिब्बत से भागकर हजारों लोग दुनिया के कई देशों में शरण ले चुके हैं लेकिन नेपाल सबसे निकट पड़ौसी होने के कारण चीन को बार-बार भरोसा दिलाता है कि वह अपने देश की जमीन का इस्तेमाल चीन-विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा।

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बदले में चीन नेपाल में आंख मींचकर पैसा बहा रहा है, सड़कें बना रहा है, चीनी प्रभाव को हर क्षेत्र में बढ़ा रहा है। यह ठीक है कि नेपाली भूमि से तिब्बत की आजादी का आंदोलन चलाने देना या वहां हिंसक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने देना अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ है लेकिन दलाई लामा के जन्मदिन पर प्रतिबंध लगाना, तिब्बतियों की सभा और जुलूस पर रोक लगाना और शरणार्थियों को प्रमाण-पत्र नहीं देना भी तो अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के नियमों का सरासर उल्लंघन है। तिब्बत के मामले में चीनी सरकार बड़ी छुई-मुई है। पिछले 25-30 साल में मैं दर्जनों बार चीन जा चुका हूं।

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चीन के लगभग सभी महत्वपूर्ण प्रांतों के विश्वविद्यालयों में मेरे भाषण हो चुके हैं लेकिन मेरे आग्रह के बावजूद चीनी सरकार ने मुझे कभी तिब्बत नहीं जाने दिया। जहां तक तिब्बत की आजादी का सवाल है, कुछ साल पहले दलाई लामा ने आस्ट्रिया में साफ-साफ कहा था कि तिब्बत को वे चीन का अभिन्न अंग मानते हैं। वे तिब्बत को चीन से अलग नहीं करना चाहते हैं लेकिन वे तिब्बती सभ्यता और धर्म के मामले में स्वायत्तता चाहते हैं। भारत और नेपाल भी तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग बता चुके हैं। फिर भी चीन के शासक पता नहीं क्यों इतने डरे हुए हैं ? समझ में नहीं आता कि वे दलाई लामा से सीधे बात क्यों नहीं करते ? 15-20 साल पहले वे दलाई लामा के भाई के साथ संपर्क में थे लेकिन वह भी अब खत्म हो चुका है। मैं सोचता हूं कि हमारे विदेश मंत्री डाॅ. जयशंकर इस संबंध में कुछ पहल करें तो उसके अच्छे नतीजे निकल सकते हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार  एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)