कश्मीर समस्या पर प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के तत्कालीन निजी सचिव एम.ओ. मथाई के संस्मरण

कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का वायदा बहुत दिन तक ऐसा नासूर बना रहा जिसकी वजह से वहां आंतरिक स्थिरता नहीं आ सकी।

New Delhi, Aug 12 : ‘……….औपचारिक रूप से भारत में कश्मीर का परिग्रहण का अनुमोदन करते हुए गवर्नर जनरल लाॅर्ड माउंटबैटेन ने नेहरू जी से व मंत्रिमंडल की आपात समिति से यह तय करा लिया कि सामान्य स्थिति हो जाने पर जनता का मत लिया जाएगा।
नेशनल कांफ्रेंस ने कश्मीर के भारत में परिग्रहण का अनुमोदन करते हुए प्रस्ताव पास किया।
शेख अब्दुल्ला को जम्मू और कश्मीर के अस्थायी शासन का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
कुछ ही समय बाद महाराजा ने अपने लड़के के लिए गद्दी छोड़ दी।

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3 नवंबर 1946 को नेहरू ने लाॅर्ड माउंटबैटेन के सुझाव को बाकायदा मान लिया। एक रेडियो भाषण में अपनी तरफ से नेहरू ने घोषणा की कि संयुक्त राष्ट्रसंघ की देखरेख में जनमत गणना कराई जाएगी। यह एक बहुत बड़ी भूल थी और इतनी ही बड़ी भूल यह थी कि 1947 के अंत में संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने पाकिस्तान द्वारा आक्रमण किए जाने की शिकायत की गई।

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न तो लाॅर्ड माउंटबैटेन जानते थे और न नेहरू जी या अन्य भारतीय नेता जानते थे कि संयुक्त राष्ट्र संघ किस ढंग से काम करता है। और, कौन -कौन सी शक्तियां क्या- क्या गुल खिलाती हैं।
भारत ने जो शिकायत सबसे पहले की थी, उस पर तो अभी तक कुछ कार्रवाई हुई नहीं ।

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और, आक्रमणकारी और आक्रमण का शिकार –दोनों को एक तराजू पर रख दिया गया। और ,तरह -तरह के प्रस्ताव पास कर दिए गए। भारत अपनी मर्खता में एक के बाद दूसरी रियायत देता चला गया। माउंटबैटेन ने जो बीज बोया था,उसके कड़वे फल आज भी भारत को खाने पड़ रहे हैं। कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का वायदा बहुत दिन तक ऐसा नासूर बना रहा जिसकी वजह से वहां आंतरिक स्थिरता नहीं आ सकी।’

–मथाई लिखित पुस्तक ‘नेहरू के साथ तेरह वर्ष’ -पेज-246-से।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)