Opinion – आईसीयू में मीडिया

अस्पतालों को क्या दोष दिया जाए क्योंकि लापरवाही तो घरवालों से हुई। वे सावधानी बरतते तो ये नौबत न आती।

New Delhi, Aug 15 : मीडिया आईसीयू में पड़ा है। कभी कराहता है तो कभी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगता है। किसी को पता नहीं बचेगा या नहीं। न डॉक्टर का पता है, न नर्स का। ज़रूरी उपकरण दिखलाई नहीं दे रहे और दवाएं भी नदारद। पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं की जो हालत कर दी है, उसमें तो उम्मीद और भी कम हो जाती है। प्राइवेट सेक्टर को मज़बूत करने के लिए सरकारों ने उन्हें धीमी मौत मरने की लिए छोड़ दिया है। अब वहाँ जो भी जाता है भगवान भरोसे। बच गए तो ठीक नहीं तो जय श्रीराम। ऐसे में मीडिया का क्या हो सकता है भला?

Advertisement

लेकिन अस्पतालों को क्या दोष दिया जाए क्योंकि लापरवाही तो घरवालों से हुई। वे सावधानी बरतते तो ये नौबत न आती। बीमारी के लक्षण बहुत पहले से ही दिखने लगे थे। देह बुखार से तप रही थी। थर्मामीटर का पारा बार-बार डरा रहा था। मरीज़ को बीच-बीच में कँपकपी भी आ जाती थी। कभी-कभी वह नींद में ही बड़बड़ाने लगता था। कुछ लोगों ने शंकाएं भी प्रकट कीं कि कहीं ये जानलेवा न साबित हो, टेस्ट-वेस्ट करवाओ, डॉक्टर को दिखाओ। मगर लोगों ने ध्यान ही नहीं दिया। उन्हें लगा कुछ लोग बहुत जल्दी से घबरा जाते हैं और डॉक्टर के पास भागने को कहने लगते हैं। डॉक्टर क्या करेगा? मोटी फीस लेगा, लंबा परचा लिख देगा और दनादन इंजेक्शन ठोंक देगा। जब बीमारी झाड़-फूँक से ही ठीक हो सकती हो तो पैसा क्यों खर्च करना? फिर ये तो मौसमी बीमारी है। जैसे ही गरमी कम होगी, इस रोग का प्रकोप भी कम होता जाएगा।

Advertisement

सही है कि शुरुआत में लोगों ने इसे महामारी की तरह नहीं देखा। उन्हें लगा कि होगा कोई वायरल-फायरल। एकाध हफ़्ते में उतर जाएगा। हाँ, कमज़ोरी वगैरा रहेगी मगर वो भी कुछेक दिनों में चली ही जाएगी। हर साल का उनका यही तज़ुर्बा था। इसलिए उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन इसने महामारी का रूप ले लिया। अब तो आलम ये है कि पूरा का पूरा मीडिया दिमाग़ी बुख़ार की चपेट में हैं।
दरअसल, दिमाग़ी बुख़ार का मसला उलझा हुआ है। कुछ लोग समझते हैं कि कुछ उल्टा-सीधा खा लेने से होता है तो कुछ मानते हैं कि जब गरमी सिर पर चढ़ जाती है तो ये हो जाता है। असल बात ये है कि कुपोषित लोगों पर ये जल्दी अटैक करता है मगर लोग इसे छिपाना चाहते हैं इसलिए इस पर कोई बात ही नहीं करना चाहता। अगर सही खाना-पीना नहीं मिलेगा तो शारीरिक और मानसिक कमज़ोरी आ जाती है और उसकी वज़ह से मरीज़ जल्दी ही टैं बोल जाता है। मीडिया के साथ भी यही हुआ। खाने-पीने को मिलता नहीं था। दूध-दही का तो छोड़ दीजिए, भर पेट खाना ही मिल जाए तो बहुत। ऐसे में वही हुआ जिसकी आशंका थी।

Advertisement

लेकिन दिमाग़ी बुखार का ये कीड़ा तो ग़ज़बै किया। उन लोगों के दिमाग़ में भी घुस गया, जिनके पास खाने को सब कुछ है और जब देखो पिज्जा-बर्गर भी भकोसते रहते हैं। मने पैसावालों के भेजे में भी जाकर बैठ गया। और सबसे ज़्यादा उत्पात भी वहीं मचाया। उन्हीं को चमकी भी ज़्यादा हुआ। शाम को आठ बजते ही उनको दौरा पड़ने लगता था। चमकिया के ये लोग ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगते। लड़ने-लड़ाने की ऐसी धुन सवार हो जाती कि बस बात-बात पर ताल ठोंकने लगते।
अस्पताल में पहुँचकर ये लोग और भी बेलगाम हो जाते। किसी डॉक्टर, नर्स को पकडकर उसी पर पिल पड़ते। अपनी बीमारी का कारण उन्हीं को बताने लगते। दूसरे मरीज़ उनकी इस हालत पर हँसते और कुछ रोने भी लगते। आपस में वे चर्चा करने लगते कि उनका इलाज हो न हो, मगर सबसे पहले तो इन्हीं लोगों को ठीक किया जाना चाहिए।

जब कई तरह के टेस्ट हुए तो पता चला कि ये मरीज़ अंदर से बहुत डरा-डरा रहता है। पता नहीं कौन-कौन सा डर इसको व्यापै रहता है, लेकिन हमेशा इस डर को ढाँपने की कोशिश में लगे रहता है। हालाँकि हक़ीक़त ये है कि सब जानते हैं। सबको पता है कि दिमाग़ी बुखार का ही ये साइड इफेक्ट है। बीमारी से पहले दिमाग़ पर असर पड़ता है, फिर दिल पर और फिर ईमान पर।
बहरहाल, मरीज़ बीमारी की अंतिम अवस्था में पहुँच चुका है। दवा-दारू ठीक से हो तो ठीक भी हो जाए, मगर ऐसा लगता है कि उसे कोई बचाना ही नहीं चाहता। जो बचाना चाहते हैं उनके हाथ में कुछ है नहीं और जो बचा सकते है उनकी बचाने में कोई रुचि नहीं है। दरअसल, वही उसकी इस हालत के लिए ज़िम्मेदार हैं। उनको ऐसा ही बीमार और डरा हुआ मीडिया चाहिए। इसलिए वह आईसीयू में ही रहेगा।मीडिया आईसीयू में पड़ा है। कभी कराहता है तो कभी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगता है। किसी को पता नहीं बचेगा या नहीं। न डॉक्टर का पता है, न नर्स का। ज़रूरी उपकरण दिखलाई नहीं दे रहे और दवाएं भी नदारद। पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं की जो हालत कर दी है, उसमें तो उम्मीद और भी कम हो जाती है। प्राइवेट सेक्टर को मज़बूत करने के लिए सरकारों ने उन्हें धीमी मौत मरने की लिए छोड़ दिया है। अब वहाँ जो भी जाता है भगवान भरोसे। बच गए तो ठीक नहीं तो जय श्रीराम। ऐसे में मीडिया का क्या हो सकता है भला?

लेकिन अस्पतालों को क्या दोष दिया जाए क्योंकि लापरवाही तो घरवालों से हुई। वे सावधानी बरतते तो ये नौबत न आती। बीमारी के लक्षण बहुत पहले से ही दिखने लगे थे। देह बुखार से तप रही थी। थर्मामीटर का पारा बार-बार डरा रहा था। मरीज़ को बीच-बीच में कँपकपी भी आ जाती थी। कभी-कभी वह नींद में ही बड़बड़ाने लगता था। कुछ लोगों ने शंकाएं भी प्रकट कीं कि कहीं ये जानलेवा न साबित हो, टेस्ट-वेस्ट करवाओ, डॉक्टर को दिखाओ। मगर लोगों ने ध्यान ही नहीं दिया। उन्हें लगा कुछ लोग बहुत जल्दी से घबरा जाते हैं और डॉक्टर के पास भागने को कहने लगते हैं। डॉक्टर क्या करेगा? मोटी फीस लेगा, लंबा परचा लिख देगा और दनादन इंजेक्शन ठोंक देगा। जब बीमारी झाड़-फूँक से ही ठीक हो सकती हो तो पैसा क्यों खर्च करना? फिर ये तो मौसमी बीमारी है। जैसे ही गरमी कम होगी, इस रोग का प्रकोप भी कम होता जाएगा।

सही है कि शुरुआत में लोगों ने इसे महामारी की तरह नहीं देखा। उन्हें लगा कि होगा कोई वायरल-फायरल। एकाध हफ़्ते में उतर जाएगा। हाँ, कमज़ोरी वगैरा रहेगी मगर वो भी कुछेक दिनों में चली ही जाएगी। हर साल का उनका यही तज़ुर्बा था। इसलिए उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन इसने महामारी का रूप ले लिया। अब तो आलम ये है कि पूरा का पूरा मीडिया दिमाग़ी बुख़ार की चपेट में हैं।
दरअसल, दिमाग़ी बुख़ार का मसला उलझा हुआ है। कुछ लोग समझते हैं कि कुछ उल्टा-सीधा खा लेने से होता है तो कुछ मानते हैं कि जब गरमी सिर पर चढ़ जाती है तो ये हो जाता है। असल बात ये है कि कुपोषित लोगों पर ये जल्दी अटैक करता है मगर लोग इसे छिपाना चाहते हैं इसलिए इस पर कोई बात ही नहीं करना चाहता। अगर सही खाना-पीना नहीं मिलेगा तो शारीरिक और मानसिक कमज़ोरी आ जाती है और उसकी वज़ह से मरीज़ जल्दी ही टैं बोल जाता है। मीडिया के साथ भी यही हुआ। खाने-पीने को मिलता नहीं था। दूध-दही का तो छोड़ दीजिए, भर पेट खाना ही मिल जाए तो बहुत। ऐसे में वही हुआ जिसकी आशंका थी।

लेकिन दिमाग़ी बुखार का ये कीड़ा तो ग़ज़बै किया। उन लोगों के दिमाग़ में भी घुस गया, जिनके पास खाने को सब कुछ है और जब देखो पिज्जा-बर्गर भी भकोसते रहते हैं। मने पैसावालों के भेजे में भी जाकर बैठ गया। और सबसे ज़्यादा उत्पात भी वहीं मचाया। उन्हीं को चमकी भी ज़्यादा हुआ। शाम को आठ बजते ही उनको दौरा पड़ने लगता था। चमकिया के ये लोग ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगते। लड़ने-लड़ाने की ऐसी धुन सवार हो जाती कि बस बात-बात पर ताल ठोंकने लगते।
अस्पताल में पहुँचकर ये लोग और भी बेलगाम हो जाते। किसी डॉक्टर, नर्स को पकडकर उसी पर पिल पड़ते। अपनी बीमारी का कारण उन्हीं को बताने लगते। दूसरे मरीज़ उनकी इस हालत पर हँसते और कुछ रोने भी लगते। आपस में वे चर्चा करने लगते कि उनका इलाज हो न हो, मगर सबसे पहले तो इन्हीं लोगों को ठीक किया जाना चाहिए।

जब कई तरह के टेस्ट हुए तो पता चला कि ये मरीज़ अंदर से बहुत डरा-डरा रहता है। पता नहीं कौन-कौन सा डर इसको व्यापै रहता है, लेकिन हमेशा इस डर को ढाँपने की कोशिश में लगे रहता है। हालाँकि हक़ीक़त ये है कि सब जानते हैं। सबको पता है कि दिमाग़ी बुखार का ही ये साइड इफेक्ट है। बीमारी से पहले दिमाग़ पर असर पड़ता है, फिर दिल पर और फिर ईमान पर।
बहरहाल, मरीज़ बीमारी की अंतिम अवस्था में पहुँच चुका है। दवा-दारू ठीक से हो तो ठीक भी हो जाए, मगर ऐसा लगता है कि उसे कोई बचाना ही नहीं चाहता। जो बचाना चाहते हैं उनके हाथ में कुछ है नहीं और जो बचा सकते है उनकी बचाने में कोई रुचि नहीं है। दरअसल, वही उसकी इस हालत के लिए ज़िम्मेदार हैं। उनको ऐसा ही बीमार और डरा हुआ मीडिया चाहिए। इसलिए वह आईसीयू में ही रहेगा।

(वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)