Opinion- दलितोद्धार का सही तरीका

उस कठोर और अंधे कानून के बावजूद दलितों पर अत्याचार बराबर जारी हैं लेकिन तथाकथित ऊंची जातियों पर फर्जी मुकदमे चलाने और ज्यादा अत्याचार करने से क्या सचमुच दलित-सेवा हो सकेगी?

New Delhi, Oct 03 : सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले को ही उलट दिया। मार्च 2018 में उसने ऐसा फैसला दिया था, जिसके कारण अनुसूचितों के उत्पीड़न संबंधी कानून को थोड़ा नरम किया गया था। अब उसे फिर कठोर बना दिया गया है। मूल कानून यह था कि कोई भी व्यक्ति किसी भी आदमी पर अनुसूचितों के उत्पीड़न का आरोप लगाकर उसे गिरफ्तार करवा सकता था। उसकी कोई पूर्व जमानत नहीं हो सकती थी। मुकदमा चलने पर अदालत ही उसे जमानत दे सकती थी।

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इस प्रावधान के चलते हजारों निर्दोष लोगों को जेल भुगतनी पड़ती थी। पिछले अनुभव ने यह सिखाया कि जैसे किसी वर्ष में ऐसे 15 हजार मामले अदालत में आए तो उसमें से 11-12 हजार फर्जी सिद्ध हुए याने लोगों ने व्यक्तिगत ईर्ष्या-द्वेष या ठगी के इरादे से प्रेरित होकर अपने किसी अफसर, किसी पड़ौसी या किसी मालदार आदमी के खिलाफ पुलिस में रपट लिखवा दी ताकि वह जेल में सड़ता रहे। इस विसंगति पर ध्यान देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल यह व्यवस्था की कि यदि किसी की शिकायत आए तो उसकी पुलिस जांच किए बिना उसके विरुद्ध एफआईआर न लिखी जाए और यदि शिकायत किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ हो तो उस अधिकारी को नियुक्त करनेवाले अफसर की इजाजत के बिना उसके खिलाफ पुलिस रपट न लिखे।

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इस फैसले के आते ही अनुसूचित जातियों के नेताओं ने देश भर में धरने-प्रदर्शन वगैरह कर दिए। सरकार घबरा गई। उसने घुटने टेक दिए और संसद से कानून को फिर पहले-जैसा कड़ा बनवा दिया। इसके बावजूद अब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने नए फैसले में उसी कानून पर मुहर लगाते हुए कहा है कि इस कानून में फेर-बदल का काम संसद का है, अदालतों का नहीं। यहां सवाल यही उठता है कि जब संसद ने उस कानून को दुबारा थोप दिया था तो अब अदालत को यह सफाई पेश करने की जरुरत क्या थी ? अदालत ने दलितों को उत्पीड़न से बचाने के लिए जो तर्क दिए हैं वे बिल्कुल लचर हैं। उनमें कोई दम नहीं है।

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यह ठीक है कि उस कठोर और अंधे कानून के बावजूद दलितों पर अत्याचार बराबर जारी हैं लेकिन तथाकथित ऊंची जातियों पर फर्जी मुकदमे चलाने और ज्यादा अत्याचार करने से क्या सचमुच दलित-सेवा हो सकेगी ? जरुरी यह है कि जितने भी दलित-कार्य हैं, उनकी कीमत उतनी ही ऊंची कर दी जाए, जितनी कि अन्य कार्यों की होती है तो उनका सम्मान अपने आप बढ़ जाएगा। उन पर अत्याचार बंद हो जाएगा। यदि शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम का फासला घट जाए तो ऊंची जाति के लोग भी दलित-कार्य खुशी-खुशी करेंगे। इससे जातिवाद भी खत्म होगा। अभी जितने भी कानून हैं, वे सब जातिवाद को मजबूत बनाते हैं। जाति तोड़े बिना समतामूलक समाज कैसे बनेगा ?

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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