Opinion – मेट्रो या जंगल- एक महानगर को क्या चाहिये
मैट्रो परिवहन का अपना चार्म है इसलिये देखा देखी में पटना, रांची और रायपुर जैसे मझोले शहर भी मैट्रो के लिए कोशिश कर रहे हैं।
New Delhi, Oct 07 : वैसे तो मुम्बई महानगर के आरे जंगल को काटे जाने का विरोध कर रहे लोग यह नहीं कह रहे कि मैट्रो परियोजना रोक दी जाये। वे बस मैट्रो का रास्ता बदलने का अनुरोध कर रहे हैं। फिर भी, अगर मुम्बई जैसे महानगर के लोगों को मैट्रो और जंगल में से एक को चुनना पड़े तो उन्हें जंगल ही चुनना चाहिये। क्योंकि महानगरों में मैट्रो का विकल्प तो उपलब्ध हो सकता है, जंगल का नहीं। जंगल एक दिन में तैयार नहीं होता। इसे तैयार करने में कई दशक लग जाते हैं। अगर मुम्बई जैसे महानगर के पास कोई जंगल बचा है तो यह किसी वरदान से कम नहीं है।
अभी पिछ्ले दिनों हमारे पटना शहर में बेली रोड़ के किनारे लगे सैकड़ों पेड़ों को कटवा दिया गया ताकि सड़क चौड़ी हो सके। हालांकि पहले भी यह सड़क कम चौड़ी नहीं थी। मगर सरकार इसे भव्य बनाना चाहती थी। अदालत में यह मामला गया तो तय हुआ कि अब पेड़ों को उखाड़ कर दूसरी जगहों में लगाया जायेगा। हालांकि यह प्रकिया थोड़ी बेहतर है। मगर बेली रोड़ पर सफर करते वक़्त जो इन घने पेड़ों की छाया हमें मिलती थी वह नहीं मिलेगी। पेड़ों का विस्थापन भी बहुत सटीक समाधान नहीं है।
उसी तरह महानगरों की बढ़ती आबादी के परिवहन के लिए जो मैट्रो का शिगूफा फेंका जाता है वह भी बहुत कारगर नहीं है। दिल्ली में हम देख ही रहे हैं। यह शहर की थोड़ी सी आबादी को लक्जीरियस परिवहन उपलब्ध कराता है। मैट्रो परिवहन का अपना चार्म है इसलिये देखा देखी में पटना, रांची और रायपुर जैसे मझोले शहर भी मैट्रो के लिए कोशिश कर रहे हैं। मगर यह बहुत महंगी परियोजना होती है, जिस वजह से बाद में किराया बढ़ता चला जाता है। कम से कम दिल्ली का अनुभव तो यही बताता है।
बड़े शहरों के परिवहन विशेषज्ञों का मानना है कि आज भी मैट्रो के मुकाबले बेहतर तरीके से चलने वाली सिटी बसें ही विकल्प हैं। बस हमें सड़कों से कारों की संख्या घटा कर बसों के लिए स्पेस बनाना होगा। मगर जब हम बसों की बात करते हैं तो मामला थोड़ा पिछड़ा लगता है। जबकि मैट्रो की व्यवस्था आधुनिक मालूम होती है। यही आकर्षण हमें मैट्रो के लिए जंगल की बलि लेने तक के लिए प्रेरित करता है।
सब जैसे पटना शहर भी बात ही ले लें। यहां अभी तक सिटी बसों की सेवा भी ढंग से विकसित नहीं हो पायी है, लेकिन मैट्रो की तैयारी जोर शोर से चल रही है। यह सिर्फ आकर्षण का ही मामला है, इसका विकास और परिवहन से बहुत कुछ लेना देना नहीं है। इसलिये जब पटना में तालाब भरे जाते हैं, पेड़ काटे जाते हैं तो कोई कुछ नहीं बोलता।
(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)