Opinion- हरियाणा- निशाने से कैसे चूक गई बीजेपी?

पूरी तरह पारदर्शी तरीके से रोजगार देने के बावजूद बीजेपी को नौकरियों के मुद्दे पर ही यूथ की नाराजगी झेलनी पड़ी, और चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा।

New Delhi, Oct 25 : हार जीत चुनाव का हिस्सा होती है, लेकिन पूरी हवा पक्ष में होने के बावजूद मतदान तक पहुंचते पहुंचते सत्ता तक पहुंचना मुश्किल हो जाए ये कम ही देखने को मिलता है। लोकसभा चुनावों में सभी दस सीटें जीतने और इन पार्लियामेंट्री कॉसिट्यूसीज में आने वाली विधानसभा की तमाम 90 सीटों में से 79 पर बढ़त बनी तो बीजेपी के हौंसले सांतवे आसमान पर थे। पहुंचने भी चाहिए थे, चाहे नगर निगम के मेयर इलेक्शन रहे हों या जींद उप-चुनाव या लोकसभा चुनाव सभी जगह पर बीजेपी को बंपर समर्थन मिला था, लेकिन सवाल ये उठ रहा है कि मई से अक्टबूर आते-आते मौसम बदलने के साथ-साथ बीजेपी के सियासी समीकरण भी पूरी तरह कैसे बिगड़ गए ? कहीं मुख्यमंत्री का अति आत्मविश्वास इसकी एक बड़ी वजह तो नहीं। ये इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि इस बार टिकट वितरण में मुख्यमंत्री की पसंद का ध्यान सबसे ज्यादा रखा गया था। यहां तककि मौजूदा मंत्रियों से लेकर विधायकों तक को पार्टी ने घर बैठने का काम किया। लोकसभा चुनाव बड़ा चुनाव होता है और वो सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाता है। इन चुनावों में 16 से 20 लाख या उससे भी ज्यादा वोटर होते हैं तो जीत हार कई बार भांपना मुश्किल भी हो जाता है लेकिन विधानसभा चुनावों में पौने दो लाख से लेकर ढाई लाख तक ही मतदाता होते हैं, और कुछ मुद्दे हमेशा हर विधानसभा के अलग अलग ही रहते हैं फिर बीजेपी क्यों उन मुद्दों को समझ नहीं पाई, या फिर यूं कहे कि पार्टी का सक्रिय वर्कर आखिर आते-आते थक गया या निराश हो गया था। निराशा शब्द का इस्तेमाल यहां जायज लगता है। मुख्यमंत्री अपनी जन आशीर्वाद यात्रा लेकर निकले तो पब्लिक में माहौल काफी बेहतर नजर आ रहा था, हर हलके में मुख्यमंत्री का जोरदार स्वागत हो रहा था, इससे पब्लिक में मौसेज तो सकारात्म जा रहा था लेकिन वर्कर से बीजेपी या तो टूट रहा था या फिर खामोश होता जा रहा था। इसकी वजह भी है। यह याद रखने वाली बात है कि मुख्यमंत्री का स्वागत सिर्फ वे लोग कर रहे थे जो टिकट के दावेदार थे या फिर यूं कहें कि इच्छूक थे। एक-एक विधानसभा क्षेत्र में सात से आठ टिकट के चाहने वालों ने मुख्यमंत्री का अलग-अलग जगहों पर स्वागत किया और अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। अपनी हैसियत के हिसाब से इन कार्यकर्ताओं ने इस दौरान पैसा भी खर्च किया। ऐसे में जिस टिकार्थी के साथ अगर एक हजार लोग भी आए थे और मुख्यमंत्री ने उससे बेहतर तरीके से बात की थी तो वो खुद को बड़ा दावेदार मानने लगा, लेकिन जैसे ही टिकट किसी और के हिस्से में आई वो सक्रिय वर्कर खामोश हो गया। यहां तककि कुछ तो मंत्रियों के हलकों में टिकट के इच्छुक लोगों ने सीएम का स्वागत किया। ये उन लोगों के लिए तो असहज करने वाला था ही साथ ही पार्टी के विधायकों और मंत्रियों की स्थिति भी इससे काफी हद तक असहज हुई।

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दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि 75 सीटों का लक्ष्य लेकर मैदान में उतरी बीजेपी उस अंडर करंट को भांपने में पूरी तरह नाकाम सबित हो गई जिससे उसके खिलाफ हवा तैयार हो रही थी। बीजेपी या यूं कहें कि मुख्यमंत्री पूरी तरह से मान चुके थे कि कितनी भी कम सीटें अगर आती हैं तो भी सरकार तो बन ही जाएगी, लेकिन शायद ये नहीं सोचा होगी कि 2005 में कांग्रेस भी 67 सीटों के साथ सत्ता में आई थी और 2009 में उसकी भी सिर्फ 40 सीटें ही आई थी और आजाद जीतकर आए विधायकों के सहारे सरकार बनानी पड़ी थी। उस वक्त भी गोपाल कांडा सिरसा से जीते थे और समर्थन के बदले मंत्री बने थे। बीजेपी उस अंडर करंट को समय रहते पहचान लेती और कोशिश करती थी तो शायद ये नौबत नहीं आती। मुख्यमंत्री ने प्रचार खत्म होने वाले दिन एक बयान दिया कि तुगलकाबाद में रविदास मंदिर बनवाएंगे। सवाल ये है कि क्या बीजेपी या मुख्यमंत्री को पूरे चुनाव के दौरान समझ ही नहीं आया कि दलित वोट टूट रहा है और उसकी वजह सिर्फ मंदिर टूटने तक सीमित नहीं है। उनके आरक्षण में ए और बी वर्ग भी एक बड़ा कारण है जिससे ये बड़ा वोट बैंक टूटा। इसके अलावा बीजेपी या मुख्यमंत्री ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया कि जाट अगर नाराज चलता रहा तो पार्टी को नुकसान होगा। हरियाणा के इतिहास में पहली बार ऐसा देखने को मिला कि जाट मतदाता पूरी तरह खामोश दिखाई दिया और उसने भनक तक नहीं लगने दी कि उसकी वोट किस ओर जाएंगी। बीजेपी को या मुख्यमंत्री को ये बात समझनी चाहिए थी कि हरियाणा में जाट, दलित और मुसलिम मिलाकर कुल 50 फीसदी वोट हैं। इसके अलावा उनके सिर्फ एक बात कह देने से काफी हद तक ब्राह्मण वोट पर फरसा चल गया।

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पूरी तरह पारदर्शी तरीके से रोजगार देने के बावजूद बीजेपी को नौकरियों के मुद्दे पर ही यूथ की नाराजगी झेलनी पड़ी, और चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा। डी ग्रेड की भर्ती और एसडीओ में बाहर के लोगों की भर्ती को विपक्ष ने जितनी जोरदार तरीके से उठा रखा था वहीं बीजेपी ने लोगों को ये समझना तक उचित नहीं समझा कि सेंटर दूर पड़े थे तो आगे से ऐसा नहीं होगा। एक बयान सिर्फ एक दिन आया और उसके बाद किसी मंच से ये नहीं सुना गया, जबकि परीक्षा के लिए सेंटर तो पहले की सरकारों में भी दूर-दूर ही आते थे। युवा को हरियाणा की बीजेपी बहुत कुछ समझाने में लगभग नाकाम मानी जा सकती है, ये बेहतर काम करने के बावजूद उसे भुना नहीं पाने जैसा है।

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एक कहावत है कि अगर किसी लकीर को छोटा करना हो तो उसे मिटाया नहीं जाता, बल्कि उससे बड़ी लकीर खींची जाती है अगर कोई मंत्री कुछ बनने की कोशिश कर रहा था तो उसे घर बैठाने की बजाए पार्टी टिकट भी देती और पुचकार कर भी रखती तो शायद बात संभल जाती लेकिन यहां तो उस मंत्री खाली ही कर दिया इससे सीट तो गई ही साथ ही कार्यकर्ता भी टूटा जो लगा तो मंत्री के साथ था लेकिन काम बीजेपी का ही कर रहा था। जो नेता अपनी-अपनी पार्टियां छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए थे वे आए तो पूरे उत्साह में थे लेकिन मुख्यमंत्री को अक्सर अपने भाषणों में ये कहते सुना गया कि ये लोग बीजेपी में तो आ गए हैं लेकिन अभी इन लोगों में बीजेपी आनी बाकी है। इस तरह के बयान निश्चित तौर पर नए आए नेता का हौंसला तोड़ते हैं, और उस नेता के साथ लगे कार्यकर्ताओं को शायद निराश ही कर देते होंगे क्योंकि इन कार्यकर्ताओं में ये संदेश भी जाता है कि जब उनके नेता का ही सम्मान नहीं हो रहा है तो उन्हें कैसे मान मिलेगा।

ये भी तय है कि बीजेपी इन पांच साल के दौरान सिर्फ उन नेताओं को साधकर नहीं रख पाई जो 2014 में यहां आए थे और बड़े कद के नेता थे। अहीरवाल से बांगर तक। मंगलवार को बांगर के एक नेता का बयान था जिले के डीसी और एसपी किसी और पार्टी के प्रत्याशी के लिए उनके लोगों को वोट नहीं डालने दे रहे थे। आमतौर पर इस तरह के बयान कोई नेता तब देता है जब उसे अपनी हार दिखाई देने लगती है, लेकिन राजनीति इसके कुछ और मायने भी बताती है। कहीं ऐसा तो कि किसी को हरवाने के लिए डीसी और एसपी पर ऊपर से दबाव हो, हालांकि ऐसा संभव कम लगता है लेकिन राजनीति है यहां कुछ भी हो सकता है।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप डबास के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)