यह चुनाव BJP और महागठबंधन के बीच नहीं बल्कि रघुवर की BJP और कार्यकर्ताओं की BJP के बीच था

इस मायने में झारखंड का चुनाव अनूठा और शायद पहला भी था, जब BJP के अधिकांश नेता-कार्यकर्ता पार्टी की हार चाह रहे थे।

New Delhi, Dec 24 : अंततः ‘सरयू’ की धारा ‘रघुवर’ को ले डूबी। इसके संकेत पहले से ही मिलने लगे थे। झारखंड में BJP की हार खुद को खुदा समझने की प्रवृत्ति की हार है। दिल्ली से लेकर रांची तक के पार्टी लीडरशीप के अहंकार और अहमकपने की हार है। अपने सहयोगियों और कार्यकर्ताओं को बंधुआ मजदूर समझने वाली सोच की हार है। इस हार में पार्टी कार्यकर्ताओं की जीत छिपी है।

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इस मायने में झारखंड का चुनाव अनूठा और शायद पहला भी था, जब BJP के अधिकांश नेता-कार्यकर्ता पार्टी की हार चाह रहे थे। उन्हें भितरघाती कहना गलत होगा। वे पार्टी से नाराज नहीं, दुखी थे। वे पार्टी को बचाना चाहते थे। इसके लिए उसे सत्ता की चाशनी से दूर करना जरूरी था।
पार्टी नेतृत्व ने इस पराजय की पटकथा खुद लिखी थी। वे अति आत्मविश्वास में थे। उन्हें लगता था कि पार्टी और झारखंड के लोग उनके इशारे पर कदमताल करते रहेंगे। सरयू राय जैसे विसिलब्लोअर और राधाकृष्ण किशोर जैसे संसदीय मामलों के जानकार का टिकट काटने और ढुल्लू महतो तथा भानुप्रताप शाही जैसे विवादास्पद को गले लगाने का यही नतीजा आना था।
पार्टी के संगठन प्रभारी को शिखर नेतृत्व का स्पष्ट मैसेज था कि रघुवर दास जो कहें उसे OK करते जाना है। दूसरा कोई क्या कहता है, उसपर ध्यान नहीं देना है।

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बेशक मुख्यमंत्री के रुप में रघुवर दास ने तेजी से और बेहतर काम किया। आम तौर पर राजनेता उलझे हुए मसलों पर कड़े फैसले लेने से परहेज करते हैं। उसे टालते हैं। लेकिन रघुवर ने कई बड़े और कड़े फैसले एक झटके में ले लिए। अच्छा किया। दिक्कत उनके काम से नहीं स्वभाव से हुई। सहयोगी मंत्रियों तक को विश्वास में लेने से की जरूरत नहीं समझी। उनपर अविश्वास करते रहे जबकि नौकरशाहों पर आंख मूंद भरोसा किया। जैसा चाहा वैसा हांका। अनाप-शनाप खर्चे किये। सच मानें तो झारखंड में BJP की सरकार नहीं रघुवर शासन था। पार्टी संगठन को उन्होंने आत्मसात कर लिया था। पार्टी के वफादार नेता-कार्यकर्ता लुंठित-कुंठित होकर तमाशबीन मात्र रह गए थे। उनकी पीड़ा-व्यथा सुननेवाला कोई नहीं था। उसी पीड़ा और व्यथा का प्रकटीकरण यह चुनाव परिणाम है।

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जमशेदपुर में रघुवर परिवार का विवादों संग गहरा नाता रहा। वहां से उनके खिलाफ खड़े उन्हीं के मंत्रिमंडलीय सहयोगी सरयू राय की जीत सुनिश्चित कराने में संघ परिवार का एक बड़ा हिस्सा जुटा हुआ था। फिर भी उनकी आंख नहीं खुली। पूरे चुनाव अभियान में अर्जुन मुंडा समेत कई बड़े नेता उपेक्षित रहे। यह चुनाव BJP और महागठबंधन के बीच नहीं बल्कि रघुवर की BJP और कार्यकर्ताओं की BJP के बीच था। उसका यही परिणाम अपेक्षित था।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)