शिक्षा के केंद्र या वोट बैंक!

इस्लामी संत को हटाकर नास्तिक दलित पुरोधा के नाम| मगर अखिलेश यादव अपने मुस्लिम वोटरों का लिहाज कर ख्वाजा को 2012 में लौटा लाये|

New Delhi, Mar 05 : योगी काबीना ने (19 फरवरी 2020) लखनऊ के “ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अरबी, फारसी और उर्दू विश्वविद्यालय” का नाम बदलकर “भाषा विश्वविद्यालय” कर दिया है| कारण बताया गया है कि “अन्य जबानों को भी प्रश्रय मिले|” मुख्यमंत्री मायावती ने इसे (4 अप्रेल 2011) स्थापित किया था| अजमेर के गरीब नवाज सूफी संत मोईनुद्दीन चिश्ती का नाम मिला| मगर बाद में बहुजन समाज पार्टी अध्यक्ष ने इसे अपने प्रणेता स्व. कांशीराम के नाम कर दिया था|

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इस्लामी संत को हटाकर नास्तिक दलित पुरोधा के नाम| मगर अखिलेश यादव अपने मुस्लिम वोटरों का लिहाज कर ख्वाजा को 2012 में लौटा लाये| कांशीराम कट गये| भाजपा ने मजहब से छेड़छाड़ न करके, चिश्ती का नाम बरकरार रखकर, केवल अध्ययन-परिधि विस्तृत कर दी| अब हिंदी, पाली, संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं| गंगाजमुनी वाले लोग इसे अरबी लिपि और उर्दू भाषा की अवमानना कह सकते हैं| तब उन्हें उत्तर प्रदेश के द्वितीय कांग्रेसी मुख्य मंत्री बाबू सम्पूर्णानन्द (1954-1960), वाराणसी वाले, की आलोचना भी करनी पड़ेगी| इस समाजवादी चिन्तक ने अरबी लिपि को हटाकर प्रदेश में देवनागरी कर दी थी| उर्दू का अधिकृत स्थान भी निरस्त कर दिया था| उन्होंने वाराणसी में संस्कृत विश्वविद्यालय और नैनीताल में ज्योतिष केंद्र की स्थापना भी की थी| सम्पूर्णानन्द का मानना था कि उर्दू से अलगाववाद जन्मा है| और अवध क्षेत्र में पाकिस्तान आन्दोलन को अपार बल भी मिला था| मोहम्मद अली जिन्ना ने इस वास्तविकता को खुलेआम स्वीकारा था|

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याद कर लें| गवर्नर-जनरल जिन्ना ने ढाका के रेस कोर्स मैदान पर (21 मार्च 1948) ऐलान किया था कि “पूर्वी बंगाल की राजभाषा उर्दू ही होगी|” हालाँकि मुस्लिम लीग के लखनऊ अधिवेशन (1937) में महासचिव नवाबजादा लियाकत अली खां ने बंगाली मुसलमानों को आश्वस्त किया था कि पाकिस्तान बनते ही बांग्ला पूर्वी प्रदेश की आंचलिक भाषा बना दी जाएगी| ऐसा नहीं हुआ| नतीजन उर्दू ने इस्लामी पाकिस्तान को ही (दिसम्बर 1971) विभाजित कर डाला| बांग्लादेश बना|
चलें वापस चिश्ती विश्वविद्यालय पर| मायावती को 2012 के चुनाव में हराकर अखिलेश यादव मुख्य मंत्री बने तो उनकी प्राथमिकता का कदम था कि कांशीराम का नाम काट कर चिश्ती का नाम पुनः जोड़ें| मुस्लिम हर्षित थे| दलित दुखी थे|
कल ही यूपी की जाफरानी सरकार ने अजमेर वाले संत का नाम तो बरकरार रखा, पर अध्ययन के विषय बढ़ा दिए| यूं भी योगी को याद है कि उर्दू इस्लामी पाकिस्तानी की राष्ट्रभाषा है | हालांकि अंग्रेजीदाँ जिन्ना ने इस्लामी जम्हूरियत की कौमी जबान पर (अगस्त 1947) गर्व से कहा था : “मुझे इतनी उर्दू तो आती है कि अपने खानसामा को मेनू का हुक्म उर्दू में दे सकूं|”

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अब तीन अन्य विश्वविद्यालयों की शिक्षण स्थिति की भी पड़ताल कर लें| अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना सर सैयद अहमद ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन को अमला मुहैया कराने हेतु की थी| इस विश्वविद्यालय को जिन्ना ने ‘पाकिस्तान की विचारधारा का शस्त्रागार’ कहा था| भारत के इस विघटनकारी व्यक्ति की फोटो आज भी इस विश्वविद्यालय में लगी हुई है| कुछ वक्त पूर्व तक यहाँ से डिग्री लेकर कई छात्र कराची में अपनी सेवाएं अर्पित करते थे| दिल्ली की जामिया मिलिया राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की प्रेरणा से स्थापित हुई थी| आज वह इस्लामी कट्टरता का खास मरकज बन गया है| जेएनयू बना था जवाहरलाल नेहरू के नाम पर कि वहां भिन्न विचारों का समागम होगा| मगर आज वहाँ कम किराये पर छात्रावास, सस्ते दाम पर अनाज और मामूली फीस पर शिक्षा हासिल कर “राष्ट्र के टुकड़े-दुकड़े गैंग” के ये अधेड़ संकल्पधारी पल रहे हैं| इन उच्च शिक्षा केन्द्रों से आजतक कितने नामचीन विद्वान् निकले ? यह शोध का विषय हो सकता है|

वस्तुतः साधारण करदाताओं के कष्टार्जित धन से निर्मित ये सब संस्थान आज बुद्धि विलास के चरागाह बने हुए हैं| राष्ट्र को कितना लाभ मिल रहा है ? अलबत्ता अशांति जरूर उपजाई जाती है| इसी सन्दर्भ में आस्तीन में पोस कर दुग्धपान कराने वाली कहावत सच दिखती है| इन शिक्षा केन्द्रों की जगह गरीब ग्रामीण दलित महिलाओं के लिए स्नानागार बन सकता था| उनके सतीत्व की हिफाजत निश्चित हो जाती| जनहित भी होता|

(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)