लंगड़ा ही सही, मिला तो न्याय!

मृत्युदण्ड के समर्थन में खास तर्क यह है कि भारत का साक्ष्य (एविडेन्स) कानून इतना लचर है कि अधिकांश अपराधी सबूत के बिना छूट जाते हैं।

New Delhi, Mar 07 : अंततः निर्भया के चारों हत्यारे एक साथ 20 मार्च की भोर में फांसी पर झूलेंगे| इन दुष्कर्मियों ने राष्ट्र को सात साल तक खूब नचाया| देर है अंधेर नहीं वाली कहावत से सांत्वना हो जाये| पर अब एक सत्तर साल के प्रौढ़ गणराज्य को सोचना होगा कि दो लाख से ऊपर दुष्कर्म के मुक़दमों पर कब तक निर्णय होगा ? हफ़्ते में पांच दिन की अदालत, लम्बा ग्रीष्मावकाश, तारीख पर तारीख, यह सब अंग्रेज मालिकों की सुभीता के लिए था| राष्ट्रवादियों को इन साम्राज्यवादी कुरीतियों को तोड़ना होगा| वर्ना आम आदमी हैदराबाद पुलिस का बड़ा प्रशंसक बन जायेगा| डॉ. प्रियंका रेड्डी के चारों बलात्कारी और हत्यारों को हैदराबाद पुलिस ने तुरंत न्याय दे दिया था| भाग रहे थे| अतः मुठभेड़ अपरिहार्य हो गया था| अब उच्चतम न्यायलय बीस वर्ष लेगी पुलिस वालों का जुर्म सिद्ध करने में| किसी को यह विलम्ब नहीं खलेगा| मगर मसला न्यायालय पर आस्था का है| वह डिगेगी| दोषी कौन है ? मंथन कीजिए| डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था : “यदि अच्छे लोग, अच्छे तरीके से बढ़ते हुए अत्याचार और अन्याय का विरोध नहीं करेंगे, तो फिर बुरे लोग, बुरे तरीके से ऐसा प्रतिरोध करेंगे| तब जनता बुरे लोगों के साथ हो जाएगी|” मान लें कि हैदराबाद पुलिस का तरीका मुनासिब नहीं था ? तो क्या डॉ. प्रियंका रेड्डी को भी निर्भया की भांति बिलम्ब से न्याय दिलवाना नीक होता ?

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दिल्ली हाई कोर्ट में मुख्य नयायाधीश डी. एन. पटेल और सी. हरी शंकर ने चारों दुष्कर्मियों की उस याचिका को ख़ारिज कर दिया था, जिसमें उनके स्वास्थ्य-परीक्षण तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार को हस्तक्षेप के निर्देश की माँग की गई थी| अर्थात् मृत्युदण्ड की नृशंसता को घटा दिया जाय ? इन दोषियों ने उच्चतम न्यायलय से माँग की थी कि फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया जाय| अभिप्राय यह कि भारत का करदाता अगले पचास वर्षों तक इन पापियों का खर्चा वहन करे !

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मृत्यु दण्ड की समाप्ति के पक्षकारों के लिए कुछ प्रश्न उठते हैं। दार्शनिक तथा उपदेशात्मक शैली में मानवता की दुहाई देना सरल है। जिनके कुटुम्बीजन शिकार हुए हैं उनकी भावना क्या है? इस पर सम्यक विचार किये बिना, सन्तुलित नजरिया नहीं बनेगा। शुरूआत करें स्वाधीन भारत के प्रथम मृत्युदण्ड के निर्णय से। नाथूराम विनायक गोड्से को फांसी लगने तक पश्चाताप नहीं था कि एक असहाय, असुरक्षित, छड़ी थामे कमजोर बुढ्ढे़ पर गोली चलाना अधम गुनाह था, कोई शौर्य का काम कतई नहीं था। उस वक्त भी इस निकृष्ट हत्यारे के बचाव में बयानबाजी हुई कि उसे फांसी से मुक्त किया जाय।

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कोलकता के उस हत्यारे का उल्लेख हो जिसने एक स्कूली बालिका का बलात्कार किया और मार डाला। धनंजय चटर्जी एक सुरक्षा गार्ड था और उसी भवन के एक फ्लेट में उसने यह अपराध किया । होशोहवास में उसने यह जघन्य हरकत की। जब न्यायालय ने उसे फांसी की सजा सुनाई तो मानवाधिकार के दावेदार, उदारपंथी, तथाकथित प्रगतिवादी उस हत्यारे की मुक्ति की मांग बुलन्द करने लगे। इन लोगों को लेशमात्र भी टीस नहीं हुई उस बालिका के भाई की मानसिक यातना को लेकर। इन मानवाधिकारियों की पुत्री, बहन या भाभी के साथ ऐसा हुआ होता तो? यह तर्क उन वकीलों पर लागू होता है जो जानबूझ कर हत्यारों के पैरोकार बन जाते है। एक मुम्बईया फिल्म आई थी जिसमें बलात्कारियों के वकील अनुपम खेर की दृष्टि बदल जाती है जब उसके मुवक्किल उसी की जवां बेटी का अपहरण कर बलात्कार करने जाते है। वकील साहब सुधर गये क्योंकि तब खुद पर बीतने लगी। बस यही तर्क है कि मुत्युदण्ड की आवश्यकता कितनी है ? उसे बरकरार रखना कितना वाजिब है ? चीन तो काफी सख्त है। शंघाई के महापौर के पुत्र को बलात्कार और हत्या पर मृत्यु दण्ड मिला। उसकी खोपड़ी में एक गोली उतार दी गई और उसकी विधवा से गोली की कीमत चवन्नी वसूली गई। राज्य कोष से खर्चा क्यों हो? पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में तो निजामे मुस्तफ़ा लागू है। वहां पत्थरों और कोड़ों से प्राणान्त करना, दुनली से गोली मारना, घोड़े की नाल से बांधकर अपराधी को कंकड़ों पर घसीटना, गंड़ासे से टुकड़़े-टुकडे़ करना आम दण्ड प्रक्रिया है। भारत तो चीन और इस्लामी पकिस्तान से कहीं अधिक सभ्य है। यहाँ मृत्युदण्ड भी देते हैं तो सलीके से। शव को कुटुम्बीजन को दे दिया जाता है।

मृत्युदण्ड के समर्थन में खास तर्क यह है कि भारत का साक्ष्य (एविडेन्स) कानून इतना लचर है कि अधिकांश अपराधी सबूत के बिना छूट जाते हैं। फांसी की सजा तो दशकों मे एकाध मिलती है। वह भी दया की याचिका से माफी पा जाते हैं। सबसे बड़ी मदद तो सर्वोच्च न्यायालय ने दे दी जब 1983 में उसका निर्णय था कि मृत्युदण्ड बिरले मुकदमों में भी बिरले मामले में ही दी जाय। मृत्युदण्ड असंभव हो गया है, फिर काहे का डर? अन्ततः भारतीय दण्ड संहिता में निहित मृत्युदण्ड के प्रावधान को मेरी मातृभाषा तेलुगु की कहावत से जोड़ा जा सकता है। इसके मुताबिक एक हष्ट-पुष्ट व्यक्ति कुर्सी पर बैठा सबको धमकाता है कि वह उठेगा और पीटेगा। सब सहम जाते हैं। मगर वह आदमी उठता ही नहीं है, बस बैठा रहकर ही धमकाता है। वजह यही कि अपने लंगड़ी टांग को उसने लुंगी से ढका रखा है| उसके खड़ा होते ही उसकी अक्षमता जाहिर हो जाती। मृत्युदण्ड का प्रावधान भी उस लंगडे़ की टांग की भांति ही है। धमकी है, कोरी धमकी।

(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)