एक दुर्घटना थी, जो टल गई!

राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा, सांसदों की ईमानदारी, उच्चतम न्यायालय की मर्यादा, भारत की वैश्विक छवि और प्रधान मंत्री की नैतिकता सभी दांव पर लगे थे|

New Delhi, Apr 22 : ठीक इन्हीं दिनों (अप्रैल 1970) अर्धशती पूर्व (कोरोना विषाणु से भी अधिक भयावह) एक संवैधानिक आपदा भारत पर छा गयी थी| राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा, सांसदों की ईमानदारी, उच्चतम न्यायालय की मर्यादा, भारत की वैश्विक छवि और प्रधान मंत्री की नैतिकता सभी दांव पर लगे थे| बीस बरस का गणतंत्र लकवा ग्रस्त हो जाता|कई आश्चर्य और अनहोनी वारदातें भी हुईं| मगर इश्वर का शुक्र है कि भारत बच गया|

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तब उच्चतम न्यायालय में पांच सदस्यीय पीठ के समक्ष एक याचिका थी कि चौथे राष्ट्रपति चुने गए निर्दलीय वी वी गिरि भ्रष्ट और अश्लील तरीके से जीते हैं| अतः चुनौती दी थी कांग्रेसी नीलम संजीव रेड्डी ने| हालाँकि ठीक सात वर्ष बाद (1977 में) वे निर्विरोध राष्ट्रपति चुने गए थे| यह कीर्तिमान है| आरोपी (राष्ट्रपति वी वी गिरि) स्वयं कटघरे में उपस्थित हुए | हालाँकि राष्ट्रपति भवन में अपना बयान वे दर्ज करा सकते थे| पर विधि सचिव (और बाद में निर्वाचन आयुक्त) मेरे ममेरे अग्रज डॉ. जीवीजी कृष्णमूर्ति ने उन्हें राय दी कि उच्चतम न्यायालय का सम्मान होगा यदि प्रथम नागरिक भी सामान्य नागरिक की भांति कानूनी सत्ता के समक्ष नतमस्तक हो| वह दृश्य भी यादगार था| न्यायमूर्ति को राष्ट्रपति शपथ दिलवाता है| यहाँ ठीक उलटा था| पीठ के सामने राष्ट्रपति कटघरे में खड़े थे| उनके कोर्टरूम में प्रवेश पर कोई भी खड़ा नहीं हुआ| सभी पांच जज निश्चेष्ट, मूक बैठे रहे| अनदेखी कर दी| उनके नमस्ते का जवाब भी नहीं दिया|

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याचिका में आरोप लगाये गए थे कि कुछ सांसदों ने निहायत निकृष्ट भाषा में विरोधी प्रत्याशी के चरित्र का हनन किया था| एक था कि नीलम संजीव रेड्डी चुने गए तो राष्ट्रपति भवन की महिला कर्मचारियों का सतीत्व खतरे में पड़ेगा| कोई भी स्त्री आगंतुक अकेली राष्ट्रपति से भेंट करने में असहज होगी| इस साइक्लोस्टाइल पत्रिका को लिखने तथा बंटवाने में जिनका नाम चर्चित था उनमें इंदिरा गाँधी के खांटी समर्थक तथाकथित “युवा तुर्क” शामिल थे| इनमें कृष्णकान्त (बाद में एनडीए के उपराष्ट्रपति), बलिया के ठाकुर चंद्रशेखर सिंह (बाद में प्रधान मंत्री), मोहन धारिया आदि थे| इन सबको बाद में संसोपा के एसएम जोशी ने “बुड्ढे अरब” का नाम दिया था| उन सभी ने इन याचिका में लगाये गये इस आरोप का खण्डन किया| कांग्रेसियों की दलील थी कि ऐसे घिनौने लीफलेट से संजीव रेड्डी के प्रति आम पार्टी सांसद का मन भ्रमित हुआ है| उनका वोटर भी रुष्ट हो गया| अभूतपूर्व सियासी हादसा तो यह हुआ था कि पार्टी संसदीय बोर्ड की बंगलुरु बैठक में जगजीवन राम के नाम का प्रस्ताव अस्वीकृत होने पर, कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी संजीव रेड्डी नामित हुए थे| फिर भी प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने खुद कांग्रेसी सांसदों से आत्मा की आवाज पर निर्दलीय वी वी गिरि को वोट देने की अपील की| लोकतंत्र के हर मान्य दलीय नियमों तथा परिपाटियों को ध्वस्त कर दिया गया| भारतीय संसदीय लोकतंत्र का चीर हरण दुनिया के सामने किया गया|

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आज ही के दिन (20 अप्रैल 1970) उच्चतम न्यायालय में जब वी वी गिरि पेश हुए थे, तो प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि अदालत के प्रति वे बड़े आश्वस्त थे| प्रधान न्यायाधीश सर्वमित्र सीकरी लाहौर हाईकोर्ट से आये थे| कार्यवाहक राष्ट्रपति वी वी गिरि द्वारा इस तेरहवें प्रधान न्यायाधीश की नियुक्ति हुई थी| कलकत्ता हाई कोर्ट से न्यायमूर्ति गोपेश कृष्ण मित्र थे जो वहाँ के मुख्य न्यायाधीश तथा दो ज्येष्ठ न्यायमूर्तियों का अधिलंघन कर सीधे उच्चतम न्यायालय में इंदिरा गाँधी सरकार द्वारा नामित थे| यह न्यायिक अजूबा था| न्यायमूर्ति विशिष्ट भार्गव थे जो आखिरी ब्रिटिश आईसीएस अधिकारी रहे थे| इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश थे| न्यायमूर्ति जयशंकर मणिलाल शेलट थे, जिन्हें कनिष्ठ न्यायमूर्ति एएन राय को प्रधान न्यायाधीश बनाते समय इंदिरा गाँधी सरकार ने 1973 में काट दिया था|

नीलम संजीव रेड्डी की तरफ से गवाह थे सांसद अब्दुल गनी दर| वी वी गिरि की ओर से सांसद जगत नारायण थे | इस मुकदमें में टेपरिकार्डर में दर्ज बयान को साक्ष्य नहीं माना गया| किन्तु अब कानून की धारा 8 के अनुसार टेप रिकार्ड पर दर्ज बयान साक्ष्य माना जाता है|
दो और गमनीय बातें हुईं थीं| अमूमन राष्ट्रपति का प्रत्याशी एक से पांच लाख वोटों (सांसद और विधायकों के मत द्वारा) से विजयी होता रहता था| गिरि मात्र चौदह हजार वोट से जीते, वह भी द्वितीय पसंद के वोट से| यह सारे वोट तीसरे उम्मीदवार सीडी देशमुख को मिले थे| वे सब भारतीय जनसंघ तथा अन्य सांसदों के थे| तब लोहिया सोशलिस्टों ने वी वी गिरि को वोट नहीं दिया होता तो तय था कि राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद संजीव रेड्डी अल्पमतवाली इंदिरा गाँधी सरकार को 1969 में बर्खास्त कर देते| देश को पहला गैरकांग्रेसी प्रधान मंत्री मिलता| इंदिरा गाँधी का उत्थान ही थम जाता, हाशिये पर चली जातीं| भारत की राजनीति की दशा तथा दिशा ही भिन्न हो जाती| पांच साल बाद एमर्जेन्सी न लगती|

(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)