Opinion- 8 पुलिस वालों की हत्या देश के दंड विधान और न्यायिक व्यवस्था के मुंह पर तमाचा है

गिरफ्तारी फिर जेल फिर बेल और साल दर साल कोर्टों में सुनवाई का खेल आम -आदमी कबतक यह झेलता रहेगा?

New Delhi, Jul 06 : कानपुर में 8 पुलिस वालों की हत्या देश के दंड विधान और न्यायिक व्यवस्था के मुंह पर तमाचा है। इस घटना ने न्याय प्रणाली की अप्रासंगिकता और कानून की बेचारगी को एक बार फिर उजागर कर दिया है। सच कहें तो इसे सम्मानजनक विदाई देने का समय आ गया है। अगर हम सचमुच एक सभ्य समाज में रहना चाहते हैं तो दंड विधान और न्यायिक व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव लाना पड़ेगा। नागरिक संगठनों को इसके लिए आवाज उठानी होगी।

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अभी जो दंड विधान और न्याय प्रणाली है, वह अपराधमुक्त समाज बनाने में बुरी तरह नाकाम रही है। बल्कि यह कहा जाए कि मौजूदा व्यवस्था अपराधियों के पक्ष में झुकी दिखती है, तो कोई गलत नहीं होगा। पीड़ित और अपराधी को एक समान माना जाना खुद में अपराध है।
थाने में घुसकर यूपी के एक मंत्री की हत्या करने समेत 60 से अधिक संगीन अपराधों में नामजद विकास दुबे छुट्टा कैसे घूम रहा था? उसे सजा क्यों नहीं हुई? सरकार, कानूनविदों और न्यायविदों को इसका जवाब देना चाहिए। यह कैसा कानून का राज है? आखिर अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था को हम कबतक ढोते रहेंगे?

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यूपी के तमाम राजनीतिक दल अपने शासनकाल में विकास दूबे को संरक्षण देते रहे, पुलिसवाले उसके यहां हाज़िरी बजाने में गर्व महसूस करते थे। पहले आम लोग भुगतते थे, इस बार पुलिसवालों को भुगतना पड़ा है। स्थानीय थानेदार पर मुखबिरी का शक किया जा रहा है।
जब शेर आदमखोर हो जाता है तो उसे गोली मार दिया जाता है। बिहार में दियारा इलाके में फसल बर्बाद करनेवाले नीलगायों को मारने के लिए सरकार शिकारियों को बुलाती है। फिर आदमियों को मारनेवालों और कानून व्यवस्था को हथियारों से रौंदने वालों से इतनी मोहब्बत क्यों? क्यों नहीं उन्हें भी गोली मारने का कानून बनता?

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दरअसल हमें क़ानून पसन्द नागरिकों से ज्यादा कानून भंजकों के अधिकार की चिंता रहती है।
एक अपराधी लोगों को मारता घूमता रहे तो ठीक, लेकिन जब पीड़ित लोग कभी किसी अपराधी की पिटाई कर देते हैं तो सभी मिलकर उसे भीड़ की बर्बरता बताने लगते हैं। प्रकारांतर से यह अपराधी को संरक्षण देना है। संरक्षण और सम्मान तो अपराधी की पिटाई करनेवालों का होना चाहिए।
अंग्रेज क्रांतिकारियों को कठोर सजा देने के लिए कालापानी की सजा देते थे। उन्हें समाज से दूर अंडमान निकोबार द्वीप के जेल भेज दिया जाता था। जहां उनसे कोई मिल नहीं सकता था। उस व्यवस्था को फिर से शुरू किया जाना चाहिए, अगर हम सभ्य समाज में रहना चाहते है तो?
अपराधियों की कई श्रेणी होती है। कई लोग अपराध करने के बाद फिर सुधर जाते हैं। उन्हें अपने किये पर पछतावा भी होता है। लेकिन कुछ लोग आदतन अपराधी होते हैं। उनके जिन में अपराध होता है। वे जेल से निकलेंगे, फिर अपराध करेंगे। जेल उनके लिए दूसरे घर की तरह होता है। इससे भी शातिर वो होते हैं जो जेल के अंदर से ही अपराध करवाते है। अपने गैंग का संचालन करते हैं। जेल में उन्हें सारी सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं।

ऐसे आदतन और खूंखार अपराधियों को किसी दुर्गम बियावान में जेल बनाकर आजीवन वहीं रखा जाना चाहिए। वह जगह ऐसी हो जहां कोई आ- जा नहीं सके। उन्हें सिर्फ महीने का राशन दे दिया जाए। वे खुद बनाएं, खाएं।
इसके लिए कानून बनाया जाना चाहिए। अब बहुत हो गया। कानूनी दाव पेंच का खेल बन किया जाना चाहिए। गिरफ्तारी फिर जेल फिर बेल और साल दर साल कोर्टों में सुनवाई का खेल आम -आदमी कबतक यह झेलता रहेगा? कबतक अपराधी गोलियां दनदनाते, खून बहाते, लाशें गिराते घूमते रहेंगे? कौन जवाब देगा?

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)