बालासाहेब का नियम याद रखते, तो यूं ना फंसते उद्धव ठाकरे, कैसे बढा संकट?

ठाकरे परिवार के सत्ता में आते ही कई परंपरा टूट गई, तो परिवार आलोचना से भी परे हीं रहा, जैसा बालासाहेब के दौर में था, तब मनोहर जोशी से लेकर नारायण राणे जैसे नेता भले ही सत्ता में थे, लेकिन अंतिम फैसला सरकार से दूर बैठे बालासाहेब ठाकरे ही लेते थे।

New Delhi, Jun 23 : शिवसेना संस्थापक बालासाहेब ठाकरे अपने दौर में महाराष्ट्र के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक रहे, बीजेपी को कमलाबाई कहने वाले बालासाहेब अकसर अपनी शर्तों पर ही काम करने के लिये जाने जाते थे, लेकिन एक चीज से वो हमेशा दूर रहे, वो थी सत्ता, उन्होने खुला ऐलान किया था कि वो जीवन में कभी पद नहीं लेंगे, भले ही बीजेपी-शिवसेना गठबंधन सरकार में उनका अच्छा खासा दखल होता था, लेकिन उन्होने कभी सरकार में पद नहीं लिया, यहां तक कि ये अलिखित पार्टी संविधान ही बन गया था कि ठाकरे परिवार शिवसेना की ओर से कभी सत्ता का हिस्सा नहीं होगा, लेकिन 2019 में ये परंपरा टूट गई, बीजेपी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाली शिवसेना बाद में इस बात पर अड़ गई कि उनका सीएम भी ढाई साल के लिये बनना चाहिये।

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सीएम पद गले की हड्डी
इसी बात पर दोनों दलों के बीच तनाव इस कदर बढा कि शिवसेना ने राह ही अलग कर ली, दशकों तक जिस एनसीपी और कांग्रेस से टकराव रहा, उनके साथ मिलकर सरकार बना ली, कहा जाता है कि इस गठबंधन की पहली शर्त ही यही थी कि Uddhav thackrey उद्धव ठाकरे ही कमान संभालें, शिवसेना प्रमुख ने ये मांग स्वीकार कर ली और मुख्यमंत्री बन गये, मौजूदा हालातों में माना जा रहा है कि उनका सीएम बनना और बेटे आदित्य ठाकरे का मंत्री बनना ही शिवसेना में नाराजगी की वजह बना, दरअसल एकनाथ शिंदे खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते थे, लेकिन उन्हें ये पद नहीं मिला, वरिष्ठ मंत्री के तौर पर उनकी अच्छी पकड़ थी, वो आदित्य ठाकरे के बढते दखल के चलते कमजोर होती चली गई।

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आलोचना से परे नहीं नही ठाकरे फैमिली
इस तरह ठाकरे परिवार के सत्ता में आते ही कई परंपरा टूट गई, तो परिवार आलोचना से भी परे हीं रहा, जैसा बालासाहेब के दौर में था, तब मनोहर जोशी से लेकर नारायण राणे जैसे नेता भले ही सत्ता में थे, aaditya thackeray uddhav thackeray लेकिन अंतिम फैसला सरकार से दूर बैठे बालासाहेब ठाकरे ही लेते थे, राजनीतिक विश्लेषकों की मानें, तो मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की छवि पिता की तरह जादूई नहीं है, इसके अलावा सत्ता को स्वीकार करके उन्होने ठाकरे परिवार के सत्ता से दूर रहने के नैतिक संदेश को भी खत्म कर दिया, इससे शिवसैनिकों के बीच ठाकरे परिवार का वो रुतबा नहीं रहा, जो बालासाहेब ठाकरे के दौर में होता था।

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40 विधायकों की बगावत से गहरे संकट का संकेत
एकनाथ शिंदे की बगावत से भी खास बात ये है कि उनके पास करीब 40 विधायकों का समर्थन है, यदि शिवसेना में सबकुछ ठीक होता, तो एकनाथ शिंदे की नाराजगी होने के बाद भी इतनी बड़ी संख्या में विधायक उनके साथ नहीं होते,  साफ है कि शिवसेना में सीएम उद्धव ठाकरे के कामकाज और गठबंधन को लेकर गहरा असंतोष है, यही वजह है कि इतनी बड़ी टूट के चलते एक तरफ उद्धव ठाकरे सरकार बचाने की स्थिति में नहीं है, तो वहीं पार्टी को बचाना भी अब उनके लिये एक चुनौती है, वो उस मोड़ पर आ गये हैं, जहां ठाकरे परिवार के लिये सत्ता और साख दोनों बचानी बड़ी जिम्मेदारी है।