‘सुशासन बाबू, अब आप मोदी युग में बीजेपी से बात कर रहे हैं’

नीतीश को ये ख़ूब पता है कि बीजेपी 2009 नहीं बल्कि 2014 की तस्वीर सामने रखकर सीटों के बंटवारे पर बात करेगी।

New Delhi, Jun 06 : बिहार में बीजेपी के साथी उसके अक्ल की बखिया उधेड़ने में लगे हैं. 2019 में अपने हिस्से की सीटों को बचाने के लिये सारे लट्ठ में तेल पिला रहे हैं. 7 तारीख को जब पटना में एनडीए के साथी दलों की बैठक होगी तो लट्ठमलट्ठ के पूरे आसार हैं. नीतीश कुमार को अंदाजा है कि बीजेपी 2014 यानी मोदी युग के बाद वाली बात करेगी और वे मोदी युग से पहले वाली बिसात बिछाएंगे.

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बाद वाले में यानी 2014 में उनका हाल ये हो गया कि लोकसभा की दो सीटें ही नसीब हो पाई थीं और नैतिकता के नाम पर मुख्यमंत्री की कुर्सी उन्होंने जीतन राम मांझी को दे दी थी. लेकिन जब लगा कि मांझी जी बीजेपी से पींगें बढाने लगे हैं तो फट से उनको कुर्सी के गरदनिया दिया. खैर, ये तो मोदी के उभार के बाद का मामला है लेकिन पहले वाले में यानी 2009 में नीतीश कुमार बड़े भाई वाले किरदार में थे. 40 सीटों में 25 वे लड़े थे औऱ 15 बीजेपी. 2013 में जब नीतीश मोदी को पीएम कैंडिडेट बनाने के खिलाफ बीजेपी का साथ छोड़ गए तो बीजेपी ने पासवान और उपेंद्र कुश्वाहा को 2014 का साथी बनाया. तीनों ने मिलकर 40 में से 31 सीटें बटोर लीं.

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नीतीश को ये ख़ूब पता है कि बीजेपी 2009 नहीं बल्कि 2014 की तस्वीर सामने रखकर सीटों के बंटवारे पर बात करेगी. वो बिना लाग-लपेट कहेगी कि 2009 तो गुजरे जमाने की बात है, अब तो भारी बहुमत वाली केंद्र सरकार और 20 राज्यों में हुकूमत हैं. अब ना तो आपका पुरानावाला चेहरा रहा और ना ही जनाधार. इसलिए नीचे आइए, जमीन पर खड़ा होकर बात कीजिए. अब आप मोदी युग में बीजेपी से बात कर रहे हैं. यही कारण है कि जेडीयू ने 7 जून की बैठक से पहले ही दबाव का खेल शुरु कर दिया है. नीतीश कुमार का चेहरा औऱ जेडीयू बड़ा भाई- पार्टी नेता इसे हवा देने में लगे हैं.
उधर पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की परेशानी ये है कि उन्हें लोकसभा में जो सीटें मिलीं वो मोदी लहर की वजह से मिलीं क्योंकि 2015 के विधानसभा चुनावों मे दोनों का फायदा बीजेपी को नहीं मिल सका. बीजेपी दोनों के साथ टफ बारगेनिंग करेगी. कुर्मी/कोइरी जाति के नेता नीतीश को साथ रखने के लिए अगर उपेंद्र कुशवाहा को बाहर करना पड़ा तो वो संकोच नहीं करेगी. हां पासवान को बीजेपी खोना नहीं चाहेगी, लेकिन उनकी बात वो पूरी तरह मान ले, ये जरुरी नहीं.

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अब बीजेपी को भी समझ ही लिया जाए. मोदी की आबोहवा में पार्टी का जो 56 इंचवाला सीना था वो गोरखपुर, फूलपुर, अररिया, कैराना के लोकसभा उपचुनाव और कर्नाटक की फजीहत से थोड़ा ढीला पड़ गया है. मौका ताड़कर ही नीतीश, पासवान औऱ उपेंद्र कुशवाहा ने सीट बंटवारे का मामला अभी सुलझाने का दबाव बनाया है. एमपी, छत्तीसगढ और राजस्थान के चुनावों मे बीजेपी अगर निकल गई तो उससे मोलभाव करना मुश्किल होगा. इसलिए गर्म लोहे पर वार करना सही है- साथी दलों के दबाव का मतलब यही है.
अचानक नीतीश कुमार को बिहार को विशेष राज्य का दर्जा याद आ गया, पासवान को नीतीश सही कह रहे हैं- ये समझ में आ गया, उन्हें तो एससी एसटी के लिये अध्यादेश लाने की बात भी याद आ गई- ये सब क्या है, समझना आसान है.
7 जून को जब पटना में चारों दल बैठेंगे तो मीडिया की नजर इस समुद्र मंथन पर रहेगी क्योंकि इससे अमृत निकलने के जितने आसार हैं, उससे कहीं ज्यादा विष के हैं.

(इंडिया न्यूज के प्रबंध संपादक राणा यशवंत के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)