जहां स्त्री व्यक्ति नहीं, देह है !
स्त्री देह पर अनंत वर्जनाओं का आवरण डालकर उसे रहस्यमय बना देने वाली हमारी संस्कृति में ऐसी फिल्मों और साहित्य के आदी लोग अपने दिमाग में सेक्स का एक ऐसा काल्पनिक संसार बुन लेते हैं जिसमें स्त्री व्यक्ति नहीं, देह ही देह नज़र आने लगती है।
New Delhi, Aug 07 : कुछ दिनों पहले हिमाचल प्रदेश में शिमला के पास एक स्कूल छात्रा की सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या की खबर पुरानी नहीं पड़ी थी कि आज बिहार के गोपालगंज जिले में शौच को जाती एक नाबालिग बच्ची के साथ पांच लोगों द्वारा सामूहिक बलात्कार और मुर्दा समझ कर उसे खेत में फेक दिए जाने की वीभत्स खबर पढ़ने को मिली। देश के लिए अब ऐसी ख़बरें अजूबा नहीं रहीं। देश के किसी न किसी कोने में लगातार ऐसी घटनायें घट ही रही हैं। उनमें कुछ ही घटनाएं ख़बरों की सुर्खियां बन पाती हैं।
आज देश में बलात्कार के खिलाफ़ कड़े से कड़े क़ानून और कठोर सजा का प्रावधान है। इसके बावज़ूद स्थिति में कोई बदलाव यदि नहीं आया है तो शायद बलात्कार को देखने का हमारा नजरिया और उसकी रोकथाम के प्रयासों की हमारी दिशा ही गलत है। हम स्त्रियों के प्रति इस क्रूरतम व्यवहार को सामान्य अपराध के तौर पर ही देखते रहे हैं, जबकि यह सामान्य अपराध से ज्यादा एक मानसिक विकृति, एक भावनात्मक विचलन है। दुर्भाग्य से इस विकृति या विचलन को बढ़ावा देने वाली वज़हों पर किसी का ध्यान नहीं है। पुलिस में तीन दशक के कार्यकाल में मेरा अपना अनुभव रहा है कि देश में नब्बे प्रतिशत बलात्कार की घटनाओं के लिए अश्लील फिल्म तथा साहित्य और नशा ज़िम्मेदार हैं।
बलात्कार की मानसिकता बनाने में स्त्री को भोग और मज़े की चीज़ के रूप में परोसने वाले अश्लील फिल्मों तथा बाजारू साहित्य की बड़ी भूमिका है। स्त्रियों के साथ यौन अपराध पहले भी होते रहे थे, लेकिन अश्लील फिल्मों और साहित्य की सर्वसुलभता के बाद इनके आंकड़े आसमान छूने लगे हैं। इन फिल्मों और किताबों का सेक्स सामान्य नहीं है। यहां आपकी उत्तेजना जगाने के लिए अप्राकृतिक सेक्स, जबरन सेक्स, हिंसक सेक्स, सामूहिक सेक्स, चाइल्ड सेक्स और पशुओं के साथ सेक्स भी हैं। हद तो यह है ये फिल्में और बाजारू साहित्य अगम्यागमन अर्थात पिता-पुत्री, मां-बेटे, भाई-बहन के बीच भी शारीरिक रिश्तों के लिए भी उकसाने लगी हैं। सब कुछ खुल्लम-खुल्ला। इन्टरनेट पर क्लिक कीजिये और सेक्स का विकृत संसार आपकी आंखों के आगे है।
परिपक्व लोगों के लिए ये यह सब मनोरंजन और उत्तेजना के साधन हो सकते हैं, लेकिन अपरिपक्व और कच्चे दिमाग के बच्चों, किशोरों, अशिक्षित या अल्पशिक्षित युवाओं पर इसका जो दुष्प्रभाव पड़ता है उसकी कल्पना भी डराती है। स्त्री देह पर अनंत वर्जनाओं का आवरण डालकर उसे रहस्यमय बना देने वाली हमारी संस्कृति में ऐसी फिल्मों और साहित्य के आदी लोग अपने दिमाग में सेक्स का एक ऐसा काल्पनिक संसार बुन लेते हैं जिसमें स्त्री व्यक्ति नहीं, देह ही देह नज़र आने लगती है। देह भी ऐसी जहां उत्तेजना और मज़े के सिवा कुछ भी नहीं। नशा ऐसे लोगों के लिए तात्कालिक उत्प्रेरक का काम करता है जो लिहाज़ और सामाजिकता का झीना-सा पर्दा भी गिरा देता है। मुझे कभी कोई ऐसा बलात्कारी नहीं मिला जिसने बिना किसी नशे के यह कुकृत्य किया हो।
अगर बलात्कार पर काबू पाना है तो बेहद आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध अश्लील सामग्री को कठोरता से प्रतिबंधित करने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। कुछ लोगों के लिए अश्लील फ़िल्में देखना उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मसला हो सकता है, लेकिन जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता सामाजिक नैतिकता और जीवन-मूल्यों को तार-तार कर दे, वैसी स्वतंत्रता को निर्ममता से कुचल देना ही हितकर है।