राजनीति एक अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति- राममनोहर लोहिया

आज़ राममनोहर लोहिया होते तो पूछते की इस देश के सरकारी कर्मचारी को जितनी न्यूनतम आय मिलती है, वो देश के किसान को क्यों नही मिलनी चाहिये

New Delhi, Oct 16: राममनोहर लोहिया आजाद भारत में पहले इंसान थे जिसने खुल कर नेहरु के खिलाफ मोर्चा खोला, जिस ज़माने के बुद्धिजीवी नेहरु के खिलाफ बोलने की सोच भी नहीं सकते थे वैसे समय में उन्होंने नेहरु के खिलाफ खुल कर बोला. दूसरा, उन्होंने अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ बोला और भारतीय भाषाओँ को बढ़ाने की बात की क्यूंकि इस देश में अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा नहीं एक सामंत बन गया है. तीसरा, उन्होंने जाती का सवाल उठाया जो की एक बहुत बड़ी बात थी क्यूंकि इस देश के कम्युनिस्ट भी उस समय गैर बराबरी की बात तो करते थे पर जाती व्यवस्था पर सवाल उठाने से बचते थे ऐसे समय में लोहिया ने सवर्ण जातियों के खिलाफ खुल कर बोला.

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इन तीन अपराध के लिए इस देश के अंग्रेजी बोलने वाले, स्वर्ण और तथाकथित बुद्धिजीवीयों ने राममनोहर लोहिया को कभी माफ़ नहीं किया. लोहिया के जीवनकाल में और उनके मरने के बाद भी उनका खूब दुष्प्रचार हुआ जिसके वजह से जो असली लोहिया हैं उन्हें हम आज भी पहचान नहीं पाते। अगर आज़ लोहिया होते तो सबसे पहले तो आज़ इस छद्म राष्ट्रवाद के बारे मे बोलते औऱ बताते की राष्ट्रवाद औऱ हिंदू की बात करने वाले लोगों को तो ना तो हिंदू धर्म पता है औऱ ना इन्हे भारत का इतिहास ही पता है औऱ ना ही ये भारतीय राष्ट्रवाद के जनक ही हो सकते है । आज़ अगर कभी कभार राममनोहर लोहिया का नाम आता है तो समाजवादी पार्टी के संदर्भ मे आता है

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हम सोचते है की अच्छा वो अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव इनकी पार्टी के पितामह रहे होंगे, दादाजी रहे होंगे…कुछ ऐसे ही आदमी होंगे । दरसल राम मनोहर लोहिया का अखिलेश यादव की पार्टी से उतना ही सम्बन्ध है जितना महात्मा गाँधी का राहुल गाँधी की पार्टी से सम्बन्ध है । ये जो समाजवादी पार्टी है, वो समाजवाद से, लोहिया के विचारो उतना ही दूर है, जितना आज़ की कॉंग्रेस पार्टी गाँधी जी के विचारो से दूर है । अगर आज़ लोहिया होते तो शायद सबसे पहली बात जो कहते, वे इस देश मे बढ़ती हुयी गैर बराबरी…आर्थिक गैर बराबरी से चिढ़ व समता बनाये रखने की जिद्द लोहिया ने जिंदगी भर पाली.. अगर आज़ लोहिया होते तो अम्बानी, अदानी की बात करते…अगर आज़ लोहिया होते तो किसानों की आत्महत्या का सवाल संसद मे उठाते।

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अगर आज़ लोहिया होते तो पूछते की इस देश के सरकारी कर्मचारी को जितनी न्यूनतम आय मिलती है, 18 से 20 हजार महीना, वो इस देश के किसान को क्यों नही मिलनी चाहिये. लोहिया ने ही वे बहस शुरू की की इस देश के प्रधनमन्त्री को कितना ख़र्च करना चाहिये। वो आर.टी.आई. का ज़माना नही था, लोहिया ने आंकड़े जुटाये की इस प्रधानमंत्री पे, इस देश पे कितना खर्च होता है औऱ समान्य व्यक्ति कितने आने ख़र्च करता है औऱ लोहिया ने इसको संसद मे उठाया औऱ कहा की जब आप एक प्रधानमंत्री पर 25 हज़ार रुपया औऱ एक गरीब आदमी पे सिर्फ़ 3 आना, इसकी बहस चलाई लोहिया ने। देश में गरीब और आमिर के बीच अधिकतम कितनी दुरी हो उन्होंने इसका बहस चलाया की अगर इस देश के अमीरों के पास दस रूपया है तो गरीब के पास एक रुपया हो.