समाजवादी विचारधारा में भूपेंद्र नारायण मंडल का योगदान

भूपेंद्र नारायण मंडल 1957 में बिहार विधानसभा के सदस्य बन गये थे। तब वे लोहिया के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी के बिहार में एकमात्र विधायक थे।

New Delhi, Feb 05: भूपेंद्र नारायण मंडल का जन्म दिन गुजर गया और मुझे ध्यान ही नहीं रहा। ऐसे सच्चे समाज सेवी व राज नेता के बारे में लिख कर मुझे अच्छा लगता है। देर से ही सही, उन पर पहले का लिखा अपना एक लेख मैं पोस्ट कर रहा हूं। भूपेंद्र नारायण मंडल बिहार में लोहियावादी आंदोलन के आदि पुरूष थे।प्रारंभिक दिनों में बिहार में लोहियावादी पार्टी को आगे बढ़ाने में उनका बड़ा योगदान था।  वे 1957 में बिहार विधान सभा के सदस्य बन गये थे। तब वे डा.राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली पार्टी समाजवादी पार्टी के बिहार में एकमात्र विधायक थे।  वैसे 1952 में भी उन्होंने विधान सभा का चुनाव लड़ा था,पर वे मात्र 666 मतों से तब हार गये थे।कांग्रेस के बी.पी.मंडल ने उन्हें हराया था।  सबसे बड़ी बात यह थी कि भूपेंद्र नारायण मंडल कभी सत्तालोलुप नहीं रहे।सन् 1967 में जब बिहार में गैर कांग्रेसी सरकार बनने लगी तो उनके सामने कैबिनेट मंत्री बनने का प्रस्ताव रखा गया।उनकी वरीयता, ईमानदारी और उनके कार्यों को देखते हुए ऐसा किया गया।तब बी.एन.मंडल, जिनके नाम पर राज्य में आज एक विश्व विद्यालय है, राज्य सभा के सदस्य थे।जिस दल में थे, उसका नाम संयुक्त समाजवादी पार्टी हो गया था।कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी जैसे बड़े समाजवादी नेता लोहिया की इस पार्टी में आ चुके थे।

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डा. लोहिया की नीति थी कि जो व्यक्ति जहां के लिए चुना गया है,वह वहीं के लिए काम करे।यानी कोई सांसद राज्य में मंत्री नहीं बने।  मंडल जी इसे अच्छी तरह जानते थे।वह यह भी जानते थे कि इसका उलंघन करने पर लोहिया जी बुरा मानेंगे।इसलिए भूपेंद्र बाबू ने मंत्री बनने से मना कर दिया।उन दिनों मंत्री पद की बड़ी ताकत होती थी।पर, उसका लोभ भी उन्हें नहीं हुआ।बाद के अपने राजनीतिक जीवन में भी भूपेंद्र बाबू ने मंत्री पद की कोई चाहत नहीं की।ऐसे लोग समाजवादी आंदोलन में भी कम ही थे।सन् 1967 के बाद अधिकतर समाजवादियों में पद का लोभ पैदा हो गया । सन 1967 में बी.पी.मंडल मधेपुरा से लोक सभा के सांसद थे।वे भी संसोपा में ही थे। उन्हें लोहिया जी की प्रतिक्रिया की परवाह नहीं थी।भूपेंद्र बाबू की जगह बी.पी.मंडल महामाया प्रसाद सिंहा की सरकार में कैबिनेट मंत्री बन गये।

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बी.पी.मंडल बाद में मंडल आयोग के अध्यक्ष भी बने थे।पर, 1968 में महामाया सरकार को अपदस्थ करने में बी.पी.मंडल और तत्कालीन संसोपा विधायक जगदेव प्रसाद की बड़ी भूमिका थी। उन्होंने दल-बदल के जरिए एक अच्छी सरकार इसलिए तोड़ी क्योंकि डा.लोहिया ने बी.पी.मंडल को विधान पार्षद नहीं बनने दिया।मंत्री पद पर बने रहने के लिए उनका विधान पार्षद बनना जरूरी था।  भूपेंद्र नारायण मंडल का जन्म एक फरवरी, 1904 को मधेपुरा जिले के एक जमींदार परिवार में हुआ था।उनके पिता जय नारायण मंडल का भी आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान था।इतिहासकार के.के.दत्ता ने भूपेंद्र बाबू के पिता और चाचा की गणना कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में की है। भूपेंद्र नारायण मंडल का निधन 29 मई 1975 को हो गया।अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने एक सिद्धांतवादी नेता के रूप में जीवन जिया।उन्होंने 1930 से 1942 तक वकालत की। 1942 के आंदोलन में वे सक्रिय थे। 13 अगस्त 1942 को मधेपुरा कचहरी पर झंडा फहराने वाले एक जत्थे का भूपेंद्र बाबू ने नेतृत्व किया था।

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उसी दिन उन्होंने तय किया कि वे अब वकालत नहीं करेंगे।उन्होंने वकालत का लाइसेंस सार्वजनिक रूप से जला दिया। वे तब से पूर्णकालिक स्वतंत्रता सेनानी बन गये। आजादी के लिए वे जेल भी गये थे। माक्र्सवाद सहित विभिन्न राजनीतिक सिद्धांतों का उन्होंने अध्ययन किया था।कुछ दिनों तक वे जस्टिस पार्टी में भी थे।सामाजिक गैर बराबरी के वे सख्त खिलाफ थे।एक बड़े जमींदार परिवार के होने के बावजूद उन्हांेने यह महसूस किया था। बाद में वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये।सन 1945 में वे भागल पुर जिला कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के महा सचिव बनाये गये थे।मार्च, 1948 में नासिक में हुए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सम्मेलन में समाजवादी लोग कांग्रेस से अलग हो गये।भूपेंद्र बाबू ने भी वही राह पकड़ी। बी.एन.मंडल की लोहियावादी समाजवादियों में कितनी इज्जत थी,यह इसी बात से साबित होता है कि मंडल जी 1959 में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये थे।उससे पहले वे बिहार सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे।उन दिनों पार्टी अध्यक्ष का सचमुच चुनाव होता था,मनोनयन नहीं।बी.एन.मंडल अपने चिंतन और आचरण में सदा समाजवादी रहे और कमजोर वर्ग के लोगों के लिए ही काम करते रहे।  बी.एन.मंडल 1966 और 1972 में बिहार से राज्य सभा के सदस्य चुने गये थे।संसद में उन्होंने हमेशा मजबूती से अपनी बात कही।आजादी के बाद भी वे आंदोलनों के लेकर जेल गये थे।

(वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार सुरेंद्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)