‘बेसन के घोल में हम अपने बाप के अरमान को नहीं बेच सकते सरकार’

जिस बाप ने देह गला कर भी पैसे जुगाड़ किये और हमारे सपने को न गलने दिया न हमारे जोश को पिघलने दिया उस बाप के अरमान और उसकी ख्वाहिशों को हम बेसन के घोल में घोल कर तो नही छान सकते। 

New Delhi, Feb 20 : डाइटिंग पे डटे खाये अघाये सज्जनों,
लीजिये, आप हम फेसबुक पे तर्क वितर्क ही कर रहे थे और इधर मुद्दा जमीन पर उतर भी गया।शुरुआत हो चुकी है सज्जनों।बिहार की धरती आरा से प्राप्त ये तस्वीर देखिये और गांव देहात के इन संघर्ष कर रहे पढ़े लिखे युवाओं का ऐलान सुन लीजिये। इन्होंने सड़क पे उतर के कह दिया है, हम चाय पकौड़ा नही बेचेंगे। हाँ हम सरकारी नौकरी करेंगे बॉस। हम किसान, मजदूर, मास्टर साब, छोटे छोटे ऑफिस में कुर्सी घिस पैंट फाड़ लेने वाले किरानी, ठेला लगाने वाले, परचून की दूकान चलाने वाले के खून पसीने को गार के निकले जमा पूंजी से पढ़े छात्र हैं, हम कम से कम “फिर से पकौड़ा”तो नही बेचेंगे। जिस बाप ने देह गला कर भी पैसे जुगाड़ किये और हमारे सपने को न गलने दिया न हमारे जोश को पिघलने दिया उस बाप के अरमान और उसकी ख्वाहिशों को हम बेसन के घोल में घोल कर तो नही छान सकते। सवाल इतना भर भी नही है मालिक कि हमने बस अभाव देखा है, आर्थिक संघर्ष देखा है और बस इसलिए हमें सरकारी नौकरी चाहिए।

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हमे सरकारी नौकरी इसलिए भी चाहिए कि, हम में से जो जो किसी भंगी,किसी जूता सीने वाला,ईंट भट्ठा बनाने वाला,खुरपी चलाने वाला,रिक्शा चलाने वाला,पान दूकान चलाने वाला,चाय दूकान चलाने वाले का बेटा बेटी है न, और जिनके बाप दादा के कपार पे उनके लिए ये “फलना वाला….” का जो दाग पीढ़ी दर पीढ़ी गोदना की तरह गोद दिया गया है न जिसके कारण लोग हमारे बाप दादा का असली राशन कार्ड वाला नाम तक भुल् चुके हैं, वो नाम वापस उन्हें यही “सरकारी नौकरी” दिलवायेगी, आपका हमारा फ़ेसबुकिया गप्प नही बाबू। जब आप सुनेंगे” ए मर्दे ऊ ठेला वाला रामजतन के लड़का कलेक्टर बन गया हो, अब रामजतन के जियते में ही स्वर्ग मिल गया।जरूर कौनो बड़का पुण्य होगा पिछले जन्म का।अब मिला बेचारे को ठेला से मुक्ति।”…..ये चाहिए, यही मुक्ति चाहिए हमको!समझे! इसलिए चाहिए सरकारी नौकरी।

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हमे इसलिए भी चाहिए सरकारी नौकरी कि जब हमारे गांव के प्रधान के घर उनके बड़के सोहद्दे लाडले का ब्याह हो तो दो तीन ठो कार्ड वहां जहां के गड़े सरकारी नल में कभी पानी पीना भी पाप और अपवित्र होना था,उस चमरटोली में भी कार्ड जाय क्योंकि अब दू तीन कलेक्टर और पुलिस कप्तान का भी घर है उस टोले में।
इस देश ने 70 साल देख लिया और इन सालों में आपके दर्शन,आपके नैतिकता का पाठ,मानवता,उदारता,सहृदयता, करुणा, इत्यादि सब देख लिया संविधान की ठाट और उसकी काट भी देख ली। आप हम इस मुल्क के गांव गांव से छुआछूत को न हुरकुच के निकाल पाये न बहुत ठेलने की कोशिश ही की। लेकिन ये बस सरकारी नौकरी ही एकमात्र ऐसा मैकेनिज्म था जिसने एक ही गांव के पंडित जी,ठाकुर साब और पासवान जी को एक चौंकी पे बिठा दिया। और शायद ये भी इसलिए भी, कुछ विसंगतियों और कमजोरियों के बावजूद इस मुल्क का संविधान हमे पूज्यनीय लगता है। उदार होने का ढोंग मत रचिये और दिल पे हाथ रख के कहिये कि एक ठेले वाला हल्दीराम भुजिया वाला भी बन जाय तो क्या ठाकुरों की चमचमाती शौर्य वाली तलवार और पंडित का दिव्य ज्ञान उसके पैसे के आगे समर्पण करेगा? लेकिन अगर आप दोषी हैं या गलत हैं तो एक कलेक्टर की औकात और पुलिस कप्तान के लात के आगे क्या क्या न समर्पित हो जाय ये आप हम अच्छी तरह जानते हैं।ये साहस 110 साल में भी बटोर न पायेगा अब ये देश कि एक कलेक्टर से उसकी जात पूछ ले।और ये मुक्ति हमे सरकारी ओहदे के इसी नौकरी ने दी है। ये सुघर सलोना दृश्य केवल सरकारी नौकरी ही रच पाता है जब एक पुजारी और एक भंगी का बेटा एक साथ मसूरी के ट्रेनिंग सेंटर में एक साथ देश की सर्वोच्च सेवा हेतु बिना किसी भेद भाव के प्रशिक्षण ले रहा है।मुल्क के इन खूबसूरत दृश्यों को रचने के लिए जरुरी है सरकारी नौकरी और आप कहते हो कोई काम छोटा नही होता,पकौड़ा बेच लो? जिंदगी भर जिस समाज को छोटा होने का अहसास कराते आये उसे एक कदम आगे बढ़ाने की बजाय कोई काम छोटा नही होता का मंत्र पढ़ा पकौड़ा गली का दार्शनिक मुहल्ला दिखा रहे? तुम्हे क्या दिक्कत अगर तिलक,तलवार,कुदाल,फावड़ा सब मिल हिंदुस्तान के लिए सिविल सेवा करें तो? क्या चाहते हो, कि हम अपने खून पसीने से पढ़ा अम्बानी,अडानी जैसे धनकुबेरों के लिए स्किल्ड मजदूर पैदा करें।उनके मन से साधारण से साहब हो जाने की इच्छा को अहंकार,सामंतवाद बता बड़े शातिराना तरीके से उन्हें पहले स्वरोजगार को मानवता वादी उदारवादी सूत्र बता पहले बरगलाएं और बस बाज़ार पे आश्रित कीड़ा बना के रखें और जब ठेला न चले हमारा ,तो अपने यहां एक प्रतिभाशाली नौकर बना के रखें। कुबेरों के बच्चे उद्योग लगाएं और हमारे गांव इनके लिए मजदूर पैदा करें जो इंजिनियर हो,आईएस की तैयारी किया हो,प्रबंधन पढ़ा हो,पत्रकारिता पढ़ा हो..सब इन धन कुबेरों के बहुमंजिला इमारत के आगे चाय पकौड़ा बेचो जहां फिर हमारे ही भाई जो इन इमारतों के अंदर मजदूर हैं वे आके खाएं पियें।वे भीतर के,हम बाहर के मजदूर। वाह, घर का माल घर में। कितने क्रूर हो चुके हैं हम जब एक गांव से निकल कर पढ़ लिख सम्भावना के द्वार पे खड़े छात्र से कहते हैं कि कुछ न हुआ तो पकौड़ा बेच लेना और साथ साथ कुछ होने के सारे अवसर भी खत्म किये जाते हैं जिससे उसका पकौड़ा बेचना तय ही हो जाय।घिन आती है उन लोगों से जिन्होंने कभी 25 गज के कमरे में सड़ते हुए वातावरण में भी पढ़ते हुए,बढ़ते हुए छात्रों का संघर्ष देखा नही है और उसे कह देते हैं कि सरकारी नौकरी की सीट घटने से क्यों बौखलाये हो? क्या सबको सरकारी नौकरी चाहिए? अरे बेशर्मों जब इतने मरीज पैदा कर चुके हो तो दवा भी देनी होगी न उतने ही मात्रा में। अब इसमें उन मरीजों का क्या दोष जिसमे वो सदियों पीस कर आये हैं और आज साहब बन सम्मान से जीना चाहते हैं। भले माना कि सबको ये दवा न मिले पर इस उम्मीद की लाइन में खड़ा रहने का तो हक़ मत छिनो। नौकर के अवसर तो मत कम करो मालिक। मन करता हैअपने सूद के पैसे से ठेले प्रायोजित करने वाले इन भरे पेट वाले साहूकारों का तोंद फाड़ उसमे से मैक डी का बर्गर और बरिस्ता की कॉफ़ी निकाल माड़ और भात डाल के पुछू कि, पेट भरा तो होगा पर मन कैसा करता है ये खा के? ये कहते हैं सरकारी नौकरी कर के क्या करोगे? अरे सरकारी नौकरी ही करके टीना डाबी किसी अतहर की शान से हो जाती है वर्ना पकौड़ा बेचते तो अंजाम अंकित सक्सेना भी हो रहा इसी मुल्क में। और पूछते हो कि, क्या रखा है सरकारी नौकरी में? सुनो हम करेंगे सरकारी नौकरी!

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ये जो बात बात पे बिहारी और यूपी वाले मजदूर हो जाते हैं, घटिया हो जाते हैं न उस बिहार यूपी पे तुम्हारे लाख भरमाने पे भी हमे नाज़ क्यों है पता है?क्योंकि हमें पता है कि जब देश के टॉप सेवा के चयन की लिस्ट टंगेगी तो उसमें हम भरे हुए मिलेंगे। क्या चाहते हो? ये नाज़ छोड़ दें? ये गौरव त्याग दें?
तुम्हे नही पता कि, एक गांव के खाते अगर एक कलेक्टर लग जाता है न तो वो सूर्य की तरह आस पास के 50 गांव को प्रेरणा की रौशनी देता है। ये जो देश जिस पर इतरा रहे हो न, जिसके बारे में कहते हो कि देश बदला है..गांव बदला है..तो जान लो ये गांव और देश इसी एक एक होने वाले सरकारी चयन से बदला है, किसी पकौड़े के ठेले से नही।

मालूम है हमे कि क्यों अखड़ रहा तुम्हे ये नौकरी, क्योंकि जब मलमल पे सोये धनपशु को मुनाफाखोरी और आय की चोरी में पकड़ के जब गांव देहात का लड़का इनकम अधिकारी बन डंटा घुसेड़ता है न तब चोट पिछवाड़े से ज्यादा ईगो पे लग रही तुम्हारे। और हम ये ईगो तो तोड़ेंगे मालिक।
और हाँ,अरे माना कि अगर नौकरी हाथ ना आई तो दो रोटी तो कमा ही लेंगे, बिना इस अमृत सलाह के भी कमा लेंगे पर इस बात से क्यों इंकार करते हो कि हम नौकरी कर सकने के सारे प्रयास तो जरूर आजमाएंगे। और सुन लो साब, हम पकौड़ा भी बेच लेंगे लेकिन तब जब पकौड़ा खाने वाले हमसे हमारी जात न पूछें, हमारा प्रदेश पूछ न हँसे ,हमारा परिवेश,हमारी बोली,हमारा रहन देख न हँसे और हमारे साथ बराबर में ठेला लगा मौज में पकौड़े बेचें, करो तैयार पहले इस देश को इस लायक।कोई काम छोटा नही होता, जात होता है न?पहले ये तो बदलो मालिक। रोटी देने की औकात देख ली है सरकार।जय हो।
उन तमाम मित्रों का आभारी हूँ जिन्हें संघर्ष करते देखा और आज देश की सर्वोच्च सेवा में योगदान करता देख रहा हूँ। गांव देहात के इन बेटों बेटियों की सफलता से ही मुझ जैसे साधारण को इतनी ताकत मिलती है कि सीने पे चढ़ के कहता हूँ, हुकूमत सुनो, हमे सरकारी नौकरी चाहिए। जय हो।

(नीलोत्पल मृणाल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)