आइए, लोकतंत्र के साथ ज़रा मीडिया के जोंकतंत्र की भी कर लें बात

“कई कथित बड़े पत्रकारों ने पत्रकारिता-धर्म के नाम पर देश की चुनी हुई सरकार के ख़िलाफ़ योजनाबद्ध तरीके से लगातार कैम्पेन चलाया और अब यह स्थापित करने की भी ज़रूरत नहीं है कि ये कैम्पेन विपक्षी पार्टियों से ठेका प्राप्त करके चलाए गए।”

New Delhi, May 25 : राजनीति में लाख बुराई है, पर एक अच्छाई भी है कि जो जनता के दिल से उतर जाते हैं, वे चुनाव में हरा दिए जाते हैं। लेकिन मीडिया में यह अच्छाई नहीं है। यहां पर आप पब्लिक की नज़रों से गिर जाएं, फिर भी अपने रैकेट, गिरोहबाज़ी और पॉलिटिकल कनेक्शन्स के दम पर राज करते रह सकते हैं।
मैं “सनसनी” बेचने वाले ऐसे कई पत्रकारों को जानता हूं, जो “मनोहर कहानियां” टाइप पत्रिकाओं की संपादकी करने से अधिक डिज़र्व नहीं करते, लेकिन न सिर्फ़ बड़े मीडिया समूहों के संपादक बने बैठे हैं, बल्कि अनेक योग्य और संजीदा पत्रकारों से अधिक सफल और सम्मानित हैं। स्वाभाविक है कि जब “सनसनी” बेचने वाले ऐसे लोग सफल और सम्मानित हो जाते हैं, तो अपने “धाकड़पन” में वे ख़ुद को पैगम्बर ही नहीं, ख़ुदा समझने लगते हैं।

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हाल के वर्षों में आपने स्वयं भी महसूस किया होगा कि कई कथित बड़े पत्रकारों ने पत्रकारिता-धर्म के नाम पर देश की चुनी हुई सरकार के ख़िलाफ़ योजनाबद्ध तरीके से लगातार कैम्पेन चलाया और अब यह स्थापित करने की भी ज़रूरत नहीं है कि ये कैम्पेन विपक्षी पार्टियों से ठेका प्राप्त करके चलाए गए। इन कथित बड़े पत्रकारों ने ग्राउंड रियलिटी पर लगातार पर्दा डाला और उसे नकारात्मकता के साथ पेश किया।
इन पत्रकारों का रैकेट इतना ज़बर्दस्त है कि इनके नाम पर फेसबुक जैसे सोशल मीडिया माध्यमों पर आपको सैकड़ों पेज और ग्रुप दिखाई दे जाएंगे, जिन्हें इनका कोई फैन-वैन नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों के पेड कार्यकर्ता चलाते हैं, जो इनकी ब्रांडिंग करते हैं और उस ब्रांडिंग के दम पर ये अपने पसंदीदा राजनीतिक दलों को फ़ायदा पहुंचाने का प्रयास करते हैं।

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लोकतंत्र में विपक्ष की आवाज़ बनना और विपक्षी दलों के लिए काम करना- दोनों दो अलग-अलग चीज़ें हैं। अभी इस चुनाव में भी आप देख लें। किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी, इसका सटीक आकलन करने में चूक बिल्कुल संभव है, लेकिन यह कैसे संभव है कि कोई निष्पक्ष पत्रकार, जो काफी अनुभवी भी हो, किसी पार्टी या नेता के लिए लहर को बिल्कुल भी महसूस न कर पाए? और इस हद तक महसूस न कर पाए कि उसे आने वाली हों 350 सीटें, पर वह खूंटा गाड़कर बैठा हो 150 सीटों पर?
हमारी इंडस्ट्री आज ऐसे ही लोगों से भरी पड़ी है। कुछ इस तरफ भी हैं और कुछ उस तरफ भी हैं। मीडिया से न्यूट्रल स्पेस आज पूरी तरह ख़त्म हो चुका है। मीडिया मालिकों को भी न्यूट्रल जर्नलिस्ट और संपादक नहीं चाहिए, क्योंकि न्यूट्रल जर्नलिस्ट और संपादक उनके लिए फंडिंग नहीं ला सकते, न अवैध और अनैतिक प्रयोग कर सकते हैं। वे आदर्शों और सिद्धांतों की बातें करेंगे, जबकि आज का मीडिया आदर्शों और सिद्धांतों से नहीं चलता है।

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वैसे, “सनसनी” बेचने वाले ये पत्रकार और संपादक भी संस्थाओं को चलाते कम, डुबाते ज़्यादा हैंं। आने वाले महीनों में भी ऐसे संपादक अनेक चैनलों को बंद कराने वाले हैं। खासकर चुनावी मौसम में जो कुकुरमुत्ते पैदा हुए, वे “सनसनी” बेचने वाले इन संपादकों का शिकार होकर जल्द ही बंद हो जाएंगे। इसके बाद एक बार फिर से सैकड़ों पत्रकार रोड पर होंगे, लेकिन “सनसनी” बेचने वाले संपादक अपनी करोड़ों की दौलत पर ऐश करेंगे।